SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४४] पाँचवाँ अध्याय उत्तर यह विशेष विचार बुद्धिरूप है और बुद्धि मतिज्ञान का भेद है, इसलिये यह भी मतिज्ञान कहलाया । मतिज्ञान के भेद में चार तरह की बुद्धि का कथन किया जाता है उसमें दूसरा भेद 'वैनयिकी' बुद्धि का है । यह विशेष विचार वैनयिकी बुद्धिरूप होने से मतिज्ञान कहलाया। प्रश्न-यदि रुतज्ञान भाषाजन्य ज्ञान है तो वह पकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय के कैसे होगा ? उनके कान नहीं होते कि वे सुने । उनके मन नहीं होता कि वे विचार करें। दूसरे के भावों से वे क्या लाभ उठा सकते हैं ? उत्तर-इरुतज्ञानकी जितनी परिभाषाएँ प्रचलित हैं, उन सब के समने यह प्रश्न खड़ा ही है । रुतज्ञान अगर अर्थ से अर्थान्तरका ज्ञान माना जाय तो भी एकेन्द्रिय आदि के मन नहीं होने से इरुज्ञान कैसे होगा ? इसके अतिरिक्त एक प्रश्न यह भी खड़ा होता है कि अगर इनके मन न माना जाय तो इनके द्वारा सुव्यवस्थित काम कैसे होते हैं ? चींटियोंका अगर ध्यान से निरीक्षण किया जाय तो मालूम होगा कि उनके मन है । वे अपना एक समूह बनाती हैं । एक चीटीको अगर कहीं कुछ खाद्य सामग्री का पता लगता है तो वह सैकड़ों चीटियों को बुलालाती है। एक चींटी जब दूसरी चीटियों पर अपना भाव या ज्ञात समाचार प्रकट करती है तब उनमें कोई भाषा होना चाहिये और भाषाजन्य ज्ञान रुतज्ञान है। इस प्रकार उनके रुतज्ञान स्पष्ट सिद्ध होता है। किन्तु मन नहीं माना जाय तो इरुतज्ञान कैसे होगा ? मन के बिना रुत असम्भव है ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy