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________________ २४० ] पाँचवाँ अध्याय इस समाधान में उलटी गंगा बहायी गई है । अनुभव और मान्यता यह है कि पहिले मति होता है, पीछे रुत (१) होता है, जबकि गणीजीने पहिले श्रुत और पीछे मति का कथन किया है। दूसरी बात यह है कि ध्यान, किसी उपयोग की स्थिरता है । ध्यान से उस उपयोग की स्थिरता सिद्ध होती है न कि उपयोगान्तरता । इस लिये ध्यानरूप होने से श्रुतज्ञान मतिज्ञान नहीं बन सकता । वास्तव में वह अर्थ से अर्थान्तरका ज्ञान तो रहता ही है। इससे यह बात ष्ट है कि अर्थ से अर्थान्तर के ज्ञान को श्रुतज्ञान नहीं कहते किंतु शास्त्रज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं । शास्त्रज्ञान के सिवाय बाकी अर्थ से अर्थान्तर का ज्ञान मतिज्ञान ही है । दूसरे शब्दों में हम मतिज्ञानी को बुद्धिमान कह सकते हैं और श्रुतज्ञानी को विद्वान कह सकते हैं । बुद्धि और विद्या के अन्तर से मतिश्रुत के अन्तर का अंदाज लग सकता है । प्रश्न - मतिज्ञान का क्षेत्र अगर इतना व्यापक होगा तो मतिऔर रहत में व्याप्यव्यापक भाव हो जायगा । अर्थात् ररुतज्ञान मति का अंश हो जायगा । उत्तर - विशेषावश्यक भाष्य में कहा है कि 'इरुतज्ञान मति - ज्ञान का एक विशिष्ट भेद ही है, इसलिये उसे मतिज्ञान के बाद कहा (२) है।' इस प्रकार किसी अपेक्षा से स्रुतज्ञान, मति का विशिष्ट (१) मइपुत्रं सुयमुत्तं न मई सुयपुव्विया बिसंसोऽयं । विशेषावश्यक १०५१ (२) महपुत्रं जंण सूर्य तेणाईए मई, विशिट्ठो वा - महभेओ चैव सुयं तो महसमणतरं भणियं । ८६ ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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