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________________ ज्ञान के भेद | २३७ आईं। इसलिये अगर आज हमें इनके विरोध में कुछ कहना पड़े तो इससे प्राचीन जैन विद्वानों की मान्यताओं का विरोध होगा, न कि महात्मा महाबीर की मान्यताओं का । मविज्ञान और श्रुतज्ञान का स्वरूप सब ज्ञानों का मूल मतिज्ञान है । इन्द्रियों के द्वारा होनेवाला प्रत्यक्ष, मानसिक विचार, स्मरण, तुलनात्मक ज्ञान, तर्कवितर्क अनुमान, अनेक प्रकार की बुद्धि आदि सभी का मतिज्ञान में अन्तभी होता है । इसलिये साधारणतः मतिज्ञान का यही लक्षण किया जाता है कि 'इन्द्रिय और मन से जो ज्ञान पैदा होता है वह मतिज्ञान है (१) । I प्रश्न -मति और रुत में क्या अन्तर है ? उत्तर - मतिज्ञान स्वार्थ है, और श्रुतज्ञान परार्थ है । श्रुतज्ञान दूसरों के विचारों का भाषा के द्वारा होनेवाला ज्ञान (२) है इसलिये वह परार्थ कहलाता है । मुख्यतः शास्त्रज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं । प्रश्न- शास्त्र में अर्थ से अर्थान्तर के ज्ञानको श्रुतज्ञान कहा है। उत्तर - शब्द को सुनकर अर्थ का ज्ञान करना अर्थ से अर्थान्तर का ही ज्ञान है । परन्तु यह नियम नहीं है कि एक अर्थ से (१) इन्द्रियैर्मनसा च यथास्वमर्थान्मन्यते अनया मनुते मननमात्रं वा मतिः । सर्वार्थसिद्धि १-९ । (२) शब्दमाकर्णयतो भाग्यमाणस्य, पुस्तकादिन्यस्तं वा चक्षुषा पश्यतः, घाणादिभिर्षा अक्षराणि उपलभमानस्य यद्विज्ञानं तत् श्रुतमुच्यते । त० टी० सिद्धसेन १-९ ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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