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________________ २३४ ] पाँचवाँ अध्याय ही होता है । टीकाकार ने जो चार आपत्तियाँ बतलाई हैं वे बिलकुल निःसार हैं। उनकी यहाँ संक्षेप में आलोचना की जाती है। ( क ) जिस प्रकार अपर्याप्त अवस्था में अवधिज्ञान होता है उस प्रकार इरुतज्ञान भी तो होता है । श्रुतज्ञान तो मानसिक ही है । जब मानसिक होने पर भी इरुतज्ञान अपर्याप्त अवस्था में रहता है, तब अवधि क्यों नहीं रह सकता ? बात यह है कि मन करण है । जबतक करण न हो तबतक ज्ञान का उपयोग नहीं हो सकता परन्तु लब्धिरूप में ज्ञान रह सकता है । अपर्याप्त अवस्था में लब्धि [ शक्ति ] रूप में अवधिज्ञान होता है । ( ख ) सिद्धों के प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी तरह का परपदार्थों का ज्ञान ही नहीं होता । प्रत्यक्ष परोक्ष भेद परपदार्थों की अपेक्षा से हैं । जब उनके परपदार्थों का ज्ञान ही नहीं तत्र प्रत्यक्ष परोक्ष की चिन्ता व्यर्थ है । ( ग ) परनिमित्त के होने से प्रत्यक्ष परोक्ष नहीं होता किन्नु स्पष्टता और अस्पष्टता से होता है। ज्ञान मात्र किसी रूप में परनिमित्त होता है । परन्तु इसीलिये उसकी प्रत्यक्षता नष्ट नहीं होती । (घ) ' मनोजन्य ज्ञान प्रत्यक्ष होने से मतिश्रुत में शामिल न होगा' यह कहना ठीक नहीं क्योंकि मन से पैदा होने वाले सभी ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं होते । जो मानसिक प्रत्यक्ष होते हैं वे अवधि आदि में शामिल होते हैं, और जो परोक्ष होते हैं वे मतिश्रुत ज्ञान में शामिल किये जाते हैं। मतिज्ञान के जो २८ भेद हैं वे मतिज्ञानके हैं न कि प्रत्यक्ष मतिज्ञान के ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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