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________________ दर्शन के भेद [ २२३ के विषयमें यहाँ वहां लिखी हैं । इसलिये दर्शन की यही परिभाषा ठीक है । विषय और विषयी किस प्रकार दूर दूर रहते हुए भी उनमें ज्ञेय ज्ञायक भाव होता है सम्बन्ध मिलता है इसके लिय जैनाचार्यो ने गम्भीर चिन्तन किया है। काल के थपेड़ों से वह छिन्नभिन्न हो गया फिर भी उसकी सामग्री आज भी मौजूद है जिससे ऊपर का निष्कर्ष निकाला गया है । आधुनिक दृष्टिकोण से भी उसका ममर्थन होता है। दर्शन के भेद दर्शन के चार भेद हैं। चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधि दर्शन, और केवल दर्शन । चक्षुरिन्द्रिय के ऊपर पड़नेवाले प्रभावों से युक्त स्वात्मग्रहण चक्षुदर्शन है, और अन्य इन्द्रियों के ऊपर पड़ने वाले प्रभावों से युक्त स्वात्मग्रहण अचक्षुर्दर्शन है । अवधिदर्शन और केवलदर्शन का स्वरूप ज्ञान के साथ बताया जायगा । प्रश्न-अन्य इन्द्रियों का अचक्षुर्दर्शन नामक एकही भेद क्यों बताया ? जिस प्रकार चक्षुर्दर्शन का एक स्वतन्त्र भेद है उसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के भी स्वतन्त्र भेद होना चाहिये, जैसे कि ज्ञान में होते हैं। उत्तर-ज्ञेयभेद से ज्ञान में भेद होता है। क्योंकि उसमें स्पर्श रस गन्ध शब्द का ज्ञान जुदा मालूम होता है। लेकिन दर्शन के लिये चारों एक सरीखे हैं । दर्शन में जुदे जुदे गुणों का ग्रहण नहीं होता किन्तु उन गुणवाली वस्तुओं का इन्द्रियों पर जो प्रभाव पड़ता है उसका ग्रहण होता है।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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