SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 213
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाँचवाँ अध्याय उत्तर--१ तत्र तो एक ही समय में दर्शन और ज्ञान दोनों उपयोग मानना पड़ेंगे। परन्तु 'एक समय में दो उपयोग नहीं हो सकते ' इस वाक्य से विरोध होगा। दूसरी बात यह है, ज्ञान और दर्शन दोनों अप्रमाण हो जायेंगे । क्योंकि सामान्यरहित विशेष कुछ काम नहीं कर सकता, इसलिये वह अवस्तु है । इतना ही नहीं, किन्तु अवस्तु का ग्रहण भी नहीं हो सकता क्योंकि अवस्तु में कर्तृकर्मरूपका अभाव है । इसी प्रकार दर्शन भी अप्रमाण हो जायगा, क्योंकि विशेषरहित सामान्य भी अवस्तु है 1 प्रश्न -२ प्रमाण न माने तो ? २०४ ] उत्तर---३ यह ठीक नहीं, क्योंकि प्रमाण के अभाव में सारे जगत्का अभाव हो जायगा । प्रश्न- ४ हो जाय ! उत्तर -- ५ यह भी ठीक नहीं, क्योंकि जगत् अभावरूप उपलब्ध नहीं होता । इसलिये सामान्यविशेषात्मक बाह्यार्थ ग्रहण ज्ञान और सामान्य विशेषात्मक स्वरूप ग्रहण दर्शन सिद्ध हुआ । १ इतिचेन्न ' हंदि दुवे माथि उवजोगा ' इत्यनेन सह विरोधात । अपि च न ज्ञानं प्रमाणं सामान्यव्यतिरिक्तविशेषस्य अर्थक्रियाकर्तृत्वं प्रति असमर्थत्वतः अवस्तुनो ग्रहणात् । न तस्य ग्रहणमपि सामान्यव्यतिरिक्ते विशेषं द्यवस्तुनि कर्तृकर्म रूपाभावात् । तत एव न दर्शनमपि प्रमाणं । २ अस्तु प्रमाणाभावः । ३ इतिचेन्न प्रमाणाभावे सर्वस्याभावप्रसङ्गात् । ४ अस्तु । ५ इतिचेन्न तथानुपलम्भात् । ततः सामान्यविशेषात्मकबाह्यार्थग्रहणं ज्ञानं तदात्मकस्वरूप प्रहणं दर्शनमिति सिद्धं ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy