SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०० ] पाँचवाँ अध्याय चौथा मतभेद - वर्तमान कालको विषय करनेवाला और सत्पदार्थों को ग्रहण करनेवाला दर्शन है और त्रिकाल को विषय करनेवाला ज्ञान है । सि० गणका उत्तर—यह ठीक नहीं है वर्तमानकाल सिर्फ एक समय रूप होने से इतना छोटा है कि उसका विवेचन नहीं हो सकता ( १ ) 1 ये चारों मतभेद ठीक हैं या नहीं रह मैं नहीं कहना चाहता और गणीजी के उत्तर कितने प्रबल हैं यह बतानेकी भी ज़रूरत नहीं है । हमें तो सिर्फ इतना समझना चाहिये कि ज्ञान दर्शनकी समस्या अधूरी रही है । उसकी प्रचलित मान्यता को सदोष समझ कर उसको ठीक करने के लिये अनेक जैनाचार्योंने अपनी अपनी कल्पनासे कसरत कराई है। 1 अभी तक मतभेद श्वेताम्बर सम्पदाय में प्रचलित हैं परन्तु यह विषय सम्प्रदायातीत है इसलिये इन्हें जैनशास्त्रोंका ही मतभेद कहना चाहिये | परन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि दिगम्बर शास्त्रोंमें मतभेद हैं ही नहीं । यहाँ एक मतभेद उपस्थित किया जाता है । आलाप पद्धति (२) प्रमाणके दो भेद कहे गये हैं । सविकल्प १ अपरे वर्णयन्ति वर्तमानकाल विषयं सदर्थग्रहणं दर्शनम् ; त्रिकालविषयं साकार ज्ञानमिति, एतदापवार्तम् वर्तमानस्य परम निरुद्ध समयरूपत्वाद्विवेचनाभाचः । २ तद्वेधा सविकल्पेतरभेदात् । सविकल्पं मानसं तच्चतुर्विधम मतिश्रुतावधिमनः पर्ययरूपम् । निर्विकल्पं मनोरहितं केवलज्ञान । इति प्रमाणस्य व्युत्पत्तिः स द्वेधा सविकल्प निर्विकल्पभेदात् इति नयस्य व्युत्पत्तिः ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy