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________________ दिवाकरजी का मतभेद [ १९५ भाषाओं को बदल दिया । जब दर्शन भी ज्ञानरूप सिद्ध हो गया तब ज्ञानके भेदरूप नयोंके साथ सम्बन्ध जोड़ने में भी कुछ विशेष आपत्ति न रही । बल्कि उससे कुछ स्पष्टता मालूम होने लगी । अचक्षदर्शन मनका दर्शन ही क्यों लिया, इसका ठाक कारण बतलाना कठिन है, परन्तु सम्भवतः ये कारण हो सकते हैं: (१) यदि सब इन्द्रियों से दर्शन माना जाय तो जिस प्रकार चक्षुरिन्द्रियके दर्शन को चक्षुदर्शन कहते हैं उसी प्रकार राशन इन्द्रिय के दर्शन को स्पर्शनदर्शन कहना चाहिए । - (२) दूरसे किसी पदार्थ को विषय करने पर उसका दर्शन माना जाता है । चक्षु और मन इन दोनों से दूर से वस्तुका ग्रहण होता है। इसलिए इन दोनों से ही दर्शन हो सकता है। स्पर्शन आदि इन्द्रियाँ तो बस्तुको छूकरके जानतीं हैं इसलिये उनका दर्शन नहीं कहा जा सकता । दिवाकरजी के इन परिवर्तनों से इतना तो मालूम होता है कि डेढ़ हजार वर्ष पहिलेके उपलब्ध वाङ्मयको दिवाकरजी तीर्थंकरोक्त नहीं मानते थे अर्थात् उसको इतना विकृत मानते थे कि सत्यान्वेषीको उसकी जराभी पर्वाह न करना चाहिए । इसलिए दिवाकरजीने निर्द्वद होकर परिवर्तन किया है। दिवाकरजीके इस प्रयत्नसे जैनवाङ्मय की त्रुटियाँ भी मालूम होती हैं। इससे सर्व की परिभाषाके ऊपरभी अव्यक्तरूप में कुछ प्रकाश पड़ता है । दिवाकरजीका यह विचारस्वातन्त्र्य आदरकी वस्तु है । फिर भी उनके प्रयत्नसे समस्या पूर्ण नहीं हुई । निम्नलिखित समस्याएँ खड़ी रहीं या खड़ी होगई ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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