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________________ संघ में केवलियों का स्थान [ १७३ भी कुछ प्रकाश पड़ता हैं । तर्थिंकर के परिवार में सब से पहिले गणधरों का नाम लिया जाता है, फिर चौदह पूर्वधारियों का, फिर उपाध्याय या अवधिज्ञानियों का, फिर केवलियों का । आत्मविकास की दृष्टि से देखा जाय तो केवलियों में तीर्थंकर से कुछ भी अन्तर नहीं है, इसलिये संघ में उनका स्थान सर्वप्रथम होना चाहिये । परन्तु ऐसा नहीं है । इससे मालूम होता है कि यह क्रम लौकिक महत्व की दृष्टि से रक्खा गया है । गणधरों का लौकिक महत्व इसलिये अधिक कहा जा सकता है कि वे तीर्थंकर के साक्षात् शिष्य, संघ के. नायक और अन्य केबलियों के भूतपूर्व गुरु होते हैं । परन्तु श्रुतके वलियों का स्थान के वलियों से भी पहिले रक्खा गया इसका कारण क्या है ? यदि केवलज्ञान का अर्थ त्रिकालत्रिलोकका ज्ञान हो तो केवलियो के आगे श्रुतवली किसी गिनती में नहीं रहते । केली, आत्मानुभव की गम्भीरता में श्रुतकेवलियों से बढ़ेचढ़े हैं परन्तु वह् आत्मानुभव जगत् को लाभ नहीं पहुँचा सकता । जो चाह्मज्ञान ( अपराविद्या ) जगत् को दिया जासकता है वह इरुतकेवलियामें तो नियमसे पूर्ण होता है किन्तु केवलियों में कोई ग्यारह अंग दसपूर्व तक के ही पाठी होते हैं, कोई ग्यारह अंग तक के और कोई एक भी अंग के नहीं । इसलिये जो शास्त्रीय लाभ श्रुतके वलियों से नियम से मिल सकता है वह केवलियों से नियम से नहीं मिल सकता । यही कारण है कि उनका नाम श्रुतके वलियों के भी पीछे रक्खा गया है । शास्त्रों में यह भी वर्णन मिलता है कि तीर्थकर के साथ
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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