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________________ वास्तविक अर्थका समर्थन [१५७ चेतसो यदवतृत्वं तत्समाधानमीरितम् । तदेव केवलीभावं सा शुभा निर्वृतिः परा ॥ ....... म्होपनिषत् ४-७ चित्त का निष्क्रिय [स्थिर हो जाना ही समाधि है वही केवली होना [कैवल्यपाना ] है-वही परा मुक्ति है । महोपनिषत् के दूसरे अध्याय के ३९ ३ श्लोक से लेकर ६२ वें श्लोक तक जीवन्मुक्त का बड़ा अच्छा वर्णन है । विस्तारभय से यहाँ उद्धृत नहीं किया जाता। उससे पता लगता है कि जीवन्मुक्ति या कैवल्य क्या है ? उसमें निर्लिप्त जीवन का बड़ा ही हृदयग्राही चित्रण है पर कहीं भी अनन्त पदार्थों के युगपत् प्रत्यक्ष का बोझ बेचारे जीवन्मुक्त पर नहीं लादा गया है। जीवन्मुक्त का स्वरूप जानने के लिये पूरी महोपनिषत् का स्वाध्याय बहुत उपयोगी है। केवली का ज्ञान परविद्या है और श्रुतकेवली का ज्ञान अपराविद्या हैं । श्रुतकेवली के पास पराविद्या नहीं होती है किन्तु केवली के पास परा और अपरा दोनों विद्याएँ होती हैं, क्योंकि अपराविद्या ( पूर्ण श्रुतज्ञान ) को प्राप्त करके ही पराविद्या प्राप्त की जा सकती है। हाँ, पराविद्या को प्राप्त करने के लिये अपराविद्या पूर्ण होना चाहिये, ऐसा नियम नहीं है। क्योंकि अपूर्ण अपराविद्या से भी पराविद्या प्राप्त की जा सकती है अर्थात् पूर्ण पाण्डित्य को प्राप्त किये बिना भी केवलज्ञान प्राप्त किया जा सकता है । फिर भी यह राजमार्ग नहीं है । राजमार्ग यही है कि पहिले अपराविद्या में पूर्णता प्राप्त की जाय । पीछे सरलता से पराविद्या प्राप्त होती है।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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