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जैनधर्म-मीमांसा
चौथा अध्याय सर्वज्ञत्वमीमांसा
सम्यग्ज्ञान
सम्यग्ज्ञान शब्द का अर्थ है सच्चा ज्ञान । अर्थात् जो वस्तु जैसी है उसे उसी प्रकार जानना सम्यग्ज्ञान * है । साधारण व्यव हार में और वस्तुविचार में सम्यग्ज्ञान की यही परिभाषा है, परन्तु धर्मशास्त्र में सम्यग्ज्ञान की परिभाषा ऐसी नहीं है । व्यवहार में किसी वस्तुका अस्तित्व - नास्तित्व जानने के लिये 'सभ्य' और 'मिथ्या' शब्दों का व्यवहार किया जाता है परन्तु धर्मशास्त्र में कोई ज्ञान near सम्यग्ज्ञान नहीं कहलाता जबतक वह हमारे सुख का कारण न हो। मैंने पहिले कहा है कि धर्म सुख के लिये है । इसलिये धर्मशास्त्रों की दृष्टि में वही ज्ञान सच्चा ज्ञान कहलायगा जो हमारे कल्याण के लिये उपयोगी हो । यही कारण है कि धर्मशास्त्र में सम्यदृष्टि का प्रत्येक ज्ञान सच्चा कहा जाता है और मिध्यादृष्टि का प्रत्येक ज्ञान मिथ्या कहा जाता है। चतुर्थ गुणस्थान से ( जहां से
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जीव सम्यग्दृष्टि होता है) प्रत्येक ज्ञान सम्यक् ज्ञान है। इसके