SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४४ चौथा अध्याय जो कषाय, जो इन्द्रियविषयसेवन, जो निद्रा और जो प्रणय इस प्रमाद के द्वारा होगा वह प्रमादरूप होगा, अन्यथा नहीं। अप्रमत्त गुणस्थान में जीव चलता फिरता है, इसलिये आँखों से देखता भी है तो भी वह प्रमादी नहीं कहलाता । प्रश्न-अप्रमत्त गुणस्थान में जीव चलता फिरता है, इसमें क्या प्रमाण है ? क्योंकि अप्रमत्त में तो ध्यान अवस्था ही होती है । ___ उत्तर-ध्यानावस्था आठवें गुणस्थान से होती है । सातवें गुणस्थान में अगर चलना फिरना बन्द हो जाय तो परिहार विशुद्धि संयम वहाँ न होना चाहिये । श्री धवल टीका में यह कहा गया है कि आठवें गुणस्थान में ध्यानावस्था होती है और गमनागमनादि क्रियाओं का निरोध होता है इसलिये वहाँ परिहार--संयम होता है क्योंकि परिहार तो प्रवृत्तिपूर्वक होता है । जहाँ प्रवृत्ति नहीं वहाँ परिहार क्या (१) ? इससे अप्रमत्त गुणस्थान में गमनागमनादि क्रिया सिद्ध हुई । देखना आदि भी सिद्ध दुआ । किन्तु ये कार्य प्रमाद का फल न होने से वहाँ अप्रमत्त अवस्था मानी गई है। केवली की निद्रा भी प्रमाद का फल नहीं है परन्तु शरीर का स्वाभाविक धर्म है इसलिये निद्रा होने से वे प्रमादी नहीं कहला सकते। . इस प्रकार जब केवली के निद्रा सिद्ध हुई तब यह निश्चित है कि उनका ज्ञान सदा उपयोगरूप नहीं होता है । निद्रा होने से [१] उपरिष्टास्किमित्ययं संयमी न भवेदितिचन्न, ध्यानामृतसागरांतर्निममांतानां वाचंयमानामुपसंहृतगमनागमनादिकायव्यापाराणां परिहारानुपपत्तेः। प्रवृत्तः परिहरति नाप्रवृत्तः। श्रीधवल टीका-सागरकीपतिका ७२ वाँ पत्र )
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy