SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 147
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३६ ] चौथा अध्याय जय कहलायेगा । इससे संवर होगा | जय हो या अजय वेदनीय तो अपना काम बराबर करता ही है । केवली के परिहें हैं अर्थात् उनकी वेदना है पर मोहनीय न होने से रागद्वेषादि पैदा नहीं होते इसीलिय परिषहों का विजयरूप संबर है । इसलिये परिषहों के सद्भाव से ही केवली को आश्रव बताना ठीक नहीं। कुछ भी करो, जिनेन्द्र के ग्यारह परिषहें सिद्ध हैं किसी भी तरह की लीपापोती से उनका अभाव सिद्ध नहीं होता । जब शीत उष्ण परिषहें सिद्ध हुईं तब उनके वेदन के लिये स्पर्शन इंद्रिय भी सिद्ध हुई । जब स्पर्शन इन्द्रिय सिद्ध हुई तब इन्द्रियजन्य मतिज्ञान भी सिद्ध हुआ । इस प्रकार केवली के केवलज्ञान के अतिरिक्त मत्यादिज्ञान भी सिद्ध हुए । I घाति-कर्मों के क्षय हो जाने से केवली को नवलब्धियाँ प्राप्त होती हैं । उनमें भोगलब्धि और उपभोग लब्धि भी होती है । पंचेन्द्रिय के विषयों में जो एक बार भोगने में आवे वह भोग और जो बारबार भोगने में आवे वह उपभोग (१) है। भोजन भोग (१) भुक्वा परिहातव्यो भोगो भुक्वा पुनश्च भानव्यः । उपभोगोऽशनवसनप्रभृतिः पंचेन्द्रियोविषयः --रनकरण्ड श्रावकाचार । अतिशयवाननतोभोगः क्षायिकः यत्कृताः पंचवर्णसर भिकुमुमदृष्टि विविधसुखशतिमारुतादयो भावाः दिव्य गंध चरण निक्षेपस्थानसप्तपद्मपंक्ति सुगंधिप यत्कृताः सिंहासन बालव्यजनाशोकपादपछत्रत्रय प्रभामण्डल गंभीर स्निग्धस्वरपरि--त० राजवार्त्तिक २-४-४१ णाम देवदुंदुभिप्रभृतयो भावाः शुभत्रिषयसुखाननुभवी भोगः अथवा मध्यपेय लेह्मादिसदुपयोगाद्भगः । सं च कृत्स्नभोगान्तरायक्षमात् यथेष्टमुपपद्यते न तु सप्रतिबन्धः कदाचिद्भवति । - सिद्धसेन गणिततत्त्वार्थ टीका /
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy