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________________ १३२] चौथा अध्याय ... उत्तर-यदि केवलज्ञानावरण संपूर्ण ज्ञानको घातनेवाला कर्म होता तो जबतक केवलज्ञानावरण का उदय है तबतक ज्ञान का एक अंश भी प्रकट नहीं होना चाहिये था। क्योंकि जब तक सर्वघाती स्पर्द्धक का उदय रहता है सब तक ज्ञानगुण का अंश भी प्रकट नहीं होन पाता। पर केवलज्ञानावरण का उदय तो कैवल्य प्राप्त होने तक बना ही रहता है और उसके पहले प्राणी को दो तीन और चार तक ज्ञान प्राप्त रहते हैं इससे मालूम होता है कि केवलज्ञानावरण कर्म की सर्वघातता केवलज्ञान तक ही है उसका अन्य चार ज्ञानों से कोई सम्बन्ध नहीं है। अन्य चार ज्ञानावरण घात करने के लिये अपने स्वतंत्र ज्ञानांश रखते हैं और उनके क्षय होने पर वे ज्ञान केवलज्ञान से भिन्नरूप में प्रकट भी होते हैं । इसलिये अर्हन्त के केवलज्ञान के सिवाय अन्य ज्ञानों का होना भी आवश्यक है । इसलिये केवली के इन्द्रियज्ञान मानना चाहिये । इस प्रकार उनको पाँचों ज्ञान सिद्ध होते हैं । ___ अगर हम केवली के इन्द्रियज्ञान न मानेंगे तो केवली के जो ग्यारह परिषहें मानी जाती हैं, वे भी सिद्ध न होंगी। केवली के ग्यारह परिषहों में शीत उष्ण आदि परिषहें हैं । यदि केवली की इन्द्रियाँ बेकार हैं तो उनकी स्पर्शन इन्द्रिय भी बेकार हुई । तब शीत उष्णकी वेदना या डासमच्छर की वेदना किस इन्द्रिय के द्वारा होगी ? प्रश्न--केवली के जो शीत उष्ण आदि ग्यारह परिषहें बताई हैं चे वास्तव में नहीं हैं, किन्तु उपचार से हैं । उपचार का कारण वेदनीय कर्मका उदय है।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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