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________________ ११० ] चौथा अध्याय मन उपयोग के बिना मनोयोग नहीं हो सकता । जैसा कि सत्यमनोयोगादि के वर्णन से मालूम होता है सद्भावः सत्यार्थः, तद्विषयं मनः सत्यमनः सत्यार्थज्ञानजननशतिरूपं भावमनः इत्यर्थः तेन सत्यमनसा जनितो योगः प्रयत्नविशेषः स सत्यमनोयोगः । अर्थात् सत्य पदार्थ को विषय करनेवाले मन को सत्यमन कहते हैं अर्थात सच्चे अर्थज्ञान को पैदा करने की शक्तिरूप भाव मन | उस सत्यमन से पैदा होनेवाला योग अर्थात् प्रयत्नविशेष सत्य मनोयोग है । इसी प्रकार असत्य आदि की भी परिभाषाएँ जानना चाहिये इससे मालूम होता है कि मनउपयोग से मनोयोग पैदा होता है । मनउपयोग के बिना मनोयोग कदापि नहीं हो सकता | जब केवली के अनुपचरित मनोयोग है तब उनके अनुपचरित मनउपयोग भी सिद्ध हुआ, और इसीसे सर्वज्ञता खण्डित हो गई । - प्रश्न- सर्वार्थसिद्धि राजवार्तिक श्लोकवार्तिक आदि ग्रंथो में मनोवण की अपेक्षा होनेवाला प्रदेशपरिस्पंद मनोयोग है, ऐसा कहा है । इससे तो मालूम होता है कि मनउपयोग के बिना भी मनोयोग हो सकता है । इसलिये मनोयोग से मनउपयोग सिद्ध न होगा। उत्तर - केवली के मनोयोग मानने से सर्वज्ञता के प्रचलित किन्तु असम्भव रूपमें बाधा आती है यह बात जब स्पष्ट हो गई तब बहुत से जैनाचार्यों ने मनोयोग के विषय में खूब खींचातानी की, उनका परस्पर विरोध और खींचातानी बताने के लिये ही मैंने
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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