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________________ १०८] चौथा अध्याय न संके । खैर, सौभाग्य की बात इतनी ही है कि इतनी लीपापोती करने पर भी दिगम्बर साहित्य उस कमजोरी को छिपा नहीं सका । यह कहना ठीक नहीं कि मनउपयोग उपचरित है मनोयोग नहीं । योग मार्गणा के प्रकरण में उपयोग को उपचरित कहने की आवश्यकता ही नहीं है यह तो ज्ञानमार्गणा में हो सकता था । इससे केवली में उपचरित मतिज्ञान सिद्ध होता है जिसका कि जैन साहित्य में जिक्र ही नहीं है । 17 गोम्मटसार टीका के शब्द बिलकुल साफ़ हैं वे बतलाते हैं कि केवली के मनोयोग ही उपचरित कहा गया हैं । सयोगिनि मुख्यवृत्त्या मनोयोगाभावेऽपि उपचारेण मनोयोगोऽ स्तीति परमागमे कथितः । २२८ टीका | सयोगकेवली के मुख्यरूप से तो मनोयोग है नहीं, इसलिये उपचार से मनोयोग है यह बात परमागम में कही है । यहां साफ़ ही मनोयोग का उल्लेख है मनउपयोग का नहीं । यह कहना भी ठीक नहीं कि २२९ वीं गाथा का उपचार से सम्बन्ध नहीं । दोनों गाथाओं ने मिलकर उपचार का आधा आधा वर्णन किया है । २२९ वीं गाथा की प्रस्तावना देखने से यह बात साफ समझ में आ जाती है । २२८ वी गाथा में मनोयोग को उपचरित कहा गया और फिर कहा गया कि उपचार में दो बातें होती हैं निमित्त और प्रयोजन । निमित्त का वर्णन २२८ वी गाथा में करके २२९ वी गाथा में उपचार का प्रयोजन कहा गया है । टीका के शब्द ये हैं
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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