SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०६ ] चौथा अध्याय जिससे जिनेन्द्र में मनोवर्गणाओं के लिये मनोयोग का उपचार करना पड़े। एक बात और है कि मनोयोग का समय ज्यादा से ज्यादः अन्तर्मुहूर्त है जब कि मनोवर्गणाएँ जीवन के प्रारम्भ से लेकर अन्त तक आती हैं। यदि मनोवर्गणाओं के आने से मनोयोग की कल्पना होती है तो जीवन भर मनोयोग मानना चाहिये था, परन्तु ऐसा नहीं है । इससे मालूम होता है कि केवली के मनोयोग वास्तव में हैं, कल्पित नहीं । ४ -- जब बोलचालका सम्बन्ध मनोयोग के साथ इतना जबदस्त है कि केवली के भी उपचार से मनोयोग की कल्पना इसलिये करना पड़ी कि वे बोलते हैं, तब एक सत्यान्वेषी पाठक यह समझ सकता है कि केवली के मनोयोग होता है । जब कोई प्रश्न पूछता है तब वे मन लगाकर उसकी बात सुनते हैं और मन लगा कर उसका उत्तर भी देते हैं । एक आदमी वर्षों तक देश देश में विहार करता है, उपदेश देता है, अपने मतका प्रचार करता है, किन्तु ये सब काम वह बिना मन के करता है - ऐसा कहनेवाला अन्धश्रद्धालुता की सीमापर बैठा है यही कहना पड़ेगा, इसलिये ऐसे मतका कुछ मूल्य न होगा । दिगम्बर संप्रदाय के समान श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी केवली के मनोयोग माना जाता है । परन्तु वहाँ मनोयोग को स्पष्ट ही स्वीकार किया है, बल्कि एक बात तो इतनी सुन्दर है कि जिससे मनोयोग का सद्भाव ही नहीं किन्तु उसका उपयोग एक तरफ को लगता है, यह भी साबित होता है । तेरहवें गुणस्थान में मनोयोग है, इसका वर्णन करते हुए वहाँ कहा गया है कि " जब मन:पर्ययज्ञानी या अनुत्तरविमान के देव
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy