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________________ १५० ] चौथा अध्याय क्योंकि यह बात असम्भव है। परन्तु यहां अभी इतनी ही बात सिद्ध होती है कि केवली के एक साथ सब का ज्ञान उपयोगात्मक न होगा। एक विद्वान अगर षड्दर्शनों का ज्ञाता है तो इसका यह मतलब नहीं है कि उसका उपयोग छःदर्शन पर सदा बना रहता है । अथवा जब दार्शनिक शास्त्रपर वह उपयोग करता है तो सभी दर्शनों पर उसका उपयोग जाता है । एक दर्शन के उपयोग के समय पर भी वह षड्दर्शनशास्त्री कहलायगा । इसी प्रकार अगर केवली एक पदार्थ पर उपयोग लगाते हैं तो भी वे अनन्ततत्वज्ञ कहला सकते हैं। प्रश्न-छमस्थ [अल्पज्ञानी] भी एक समय में एक वस्तुपर उपयोग लगासकते हैं और केवली भी उतना ही उपयोग लगाते हैं तब छमस्थ और केवली में अन्तर क्या रहेगा ? उत्तर-एक मूर्ख भी एक समय में एक ही अक्षर का उच्चारण कर सकता है और विद्वान भी इतना ही उच्चारण कर सकता है, परन्तु इससे मूर्ख और विद्वान एक से नहीं हो जाते । विद्वत्ता का फल एक समय में अनेक अक्षरों का उच्चारण नहीं है, किन्तु अक्षरोका अनेक तरह से सार्थक उच्चारण करना है । अथवा जैसे एक साधारण पशु एक समय में एक ही उपयोग करता है और एक श्रुतकेवली परमावधिज्ञानी मनःपर्ययज्ञानी भी एकही उपयोग करता है तो उन दोनों की योग्यता एकसी नहीं हो जाती । उपयोग की विस्तीर्णतामें ज्ञान की महत्ता नहीं है किन्तु महत्ता शक्ति की
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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