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________________ ९८ ] चौथा अध्याय प्रत्येक प्रत्यक्ष सादृश्य प्रत्यभिज्ञान और वैसादृश्य प्रत्याभिज्ञान के विषय को भी जानता रहता है । सामान्य विशेषात्मक कहने से वस्तु का स्वभाव अनेकान्तात्मक तो सिद्ध होता ही है साथ ही विषय की सीमा भी निर्धारित होती है । विषय केवल सामान्यात्मक हो तो केवल सतरूप रह जाय, केवल विशेषात्मक हो तो अविभागप्रतिच्छेदादि रूप हो जाय । दोनों अव्यवहार्य और निरुपयोगी हैं । कहने का मतलब यह है कि एकत्व अनेकत्व, सादृश्य वैसादृश्य, नित्यत्व अनित्यत्व का अविनाभाव रहने पर भी प्रत्येक प्रमाण इन्हें ग्रहण नहीं कर सकता इनको ग्रहण करने वाले प्रत्यभिज्ञानादि जुदे हैं । इसलिये केवली अगर सब पदार्थों का सामान्य प्रत्यक्ष करें भी, तो भी सब पदार्थों का विशेष प्रत्यक्ष न होगा | - शंका- दर्पण के सामने अब कोई पदार्थ आता है तब उस का पूरा प्रतिबिम्ब एक ही साथ पड़ता है, अत्रयत्र का अलग और अवयवी अलग ऐसा नहीं होता । या इसी प्रकार फोटो के केमरा में जब पचास आदमियों का फोटो लिया जाता है तब पचास आदमियों का सामान्य मनुष्याकार और उनकी अलग अलग शक्लें एक साथ ही प्रतिम्बित होती हैं । जो बात दर्पण में है, जो बात केमरा में है । वहीं बात आँख में भी है। आँख की पुतली भी एक तरह का दर्पण या केमरा है । नेत्ररूप भावेन्द्रिय उस ही का उस ही ढंग से प्रकाश करती है जैसे कि पुतली में प्रतिबिम्बित हुआ है. 1 तत्र एक ही उपयोग में समस्त विशेषों का एक साथ प्रतिमास क्यों न होगा ? 1
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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