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________________ सर्वज्ञत्व और जैनशास्त्र [९५ और असमानता का भी अविनाभाव सम्बन्ध है । यदि घट अवयवी की दृष्टि से एक या समान है तो अवयवों की दृष्टि से अनेक या असमान । जिस प्रकार घट ज्ञेय है उस ही प्रकार उसके मुख्य पेट आदि अवयव भी। जिस समय हम घट को जानते हैं उस ही समय उनका भी ज्ञान होता ही है । जिस प्रकार घटज्ञान में घट में रहनेवाली समानता या एकता का बोध होता है उस ही प्रकार उसके अवयवों में रहनेवाली असमानता या अनेकता का भी । कौन कह सकता है कि घटज्ञान में उसके पेट की विशालता एवं उसके मुख की लघुता नहीं झलकती। इससे प्रगट है कि जिस प्रकार एक उपयोग में एक ज्ञेय प्रतिभासित होता है उस ही प्रकार अनेक भी । या जिस प्रकार उनकी समानता झलकती है उस ही प्रकार विशेषताएँ भी, यही व्यवस्था भिन्न भिन्न अनेक अवयवियों के विषय में है। इसी प्रकार जब केवलज्ञानी सामान्य प्रतिभास करेगा तब उसके भीतर के समस्त विशेष भी प्रतिभासित होंगे। . उत्तर--वस्तु में जिन चीजों का अविनाभाव है उनका अवि. नाभात्र ज्ञान में नहीं आता । पुद्गल में रूप रस गंध स्पर्श आदि अनेक गुणों का अविनाभाव है पर ज्ञानमें जब वस्तु का प्रतिभास होता है तब उन सबका प्रतिभास नहीं होता। जिस समय हम घटको जानते हैं उसी समय अगर हमें उसके अवयवों का प्रतिभास होने लगे तो उन अवयवों के अवयवों का भी प्रतिभास होने लगेगा, इस प्रकार घटके समस्त दृश्य अणु प्रतिभासित हो जॉयमे, फिर तो किसी चीज को गौर से देखने की जरूरत नहीं रहेगी, एक ही नजर में
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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