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को पर समझते हैं। इन्द्रियों विषयों को विष के समान गिनते हैं। इन तत्त्वज्ञानियों की एक मात्र चाह अपने आत्मरमण की होती है। पं. बनारसीदास जी निम्न सवैये में कहते हैं कि
राग विरोध उदै जबलौ तबलौ, यह जीव मृषा मग धावै। ग्यान जग्यौ जब चेतन को तब, कर्म दसा पर रूप करावै॥ कर्म विलक्षण करै अनुभौ तहाँ, मोह मिथ्यात प्रवेस न पावै।
मोह गये उपजै सुख केवल, सिद्ध भयौ जगमाहिं न आवै॥ जब तक इस जीव को मिथ्याज्ञान का उदय रहता है, तब तक वह राग-द्वेष में वर्तता है। परन्तु जब सम्यक ज्ञान का उदय हो जाता है, तब वह कर्मपरिणति को अपने से भिन्न गिनता है और जब कर्मपरिणति तथा आत्मपरिणति का पृथक्करण करके आत्म अनुभव करता है, तब मिथ्या मोहनीय को स्थान नहीं मिलता और मोह के पूर्णतया नष्ट होने पर केवलज्ञान तथा अनन्त सुख प्रगट होता है, जिससे सिद्ध पद की प्राप्ति होती है और फिर जन्म-मरणरूप संसार में नहीं आना पड़ता।
राग में फंसा जीव कभी-कभी परिहासपूर्ण व्यवहार से अपने अनादि मोह को, राग को छोड़ देता है, वैरागी हो जाता, अपना कल्याण तो करता ही है औरों के भी कल्याण का निमित्त बन जाता है। यह कैसे संभव होता है, इसको समझने के लिए निम्न दृष्टान्त को देखें।
राग से वैराग्य किसी समय हस्तिनापुर में राजा इमवान राज्य करते थे। उनकी पत्नी का नाम रानी चूड़ामणि था। इनके एक पुत्र उदय सुन्दर एवं एक पुत्री मनोदया बहुत ही गुणवान व रूपवान थे। मनोदया के युवा होने पर पिता इमवान ने इसका विवाह अयोध्या के राजा सरेन्द्रमन्य के अतिगणवान एवं रूपवान पुत्र बज्रबाहु से कर दिया। दोनों का विवाह सम्पन्न हुए दो ही दिन व्यतीत होते हैं कि हस्तिनापुर से भाई उदय सुन्दर बहन को लेने अयोध्या आ जाता है। बज्रबाहु पल भर का भी वियोग मनोदया का सहन करने में स्वयं को असमर्थ पाता है। कहता है कि मैं इसके बिना नहीं रह सकता हूँ। यदि इसको ले जाना है तो मैं भी संग चलूँगा। उदय सुन्दर अपनी बहिन मनोदया की सासू कीर्तिसमा एवं ससुर सुरेन्द्रमन्यु के समक्ष मनोदया को अपने माता-पिता के घर ले जाने के लिए कहता है। सहमति मिल जाने के पश्चात् अगले दिन प्रातः सभी हस्तिनापुर की ओर रवाना होते हैं। राजवधू को विदा देने सारा नगर उमड़ पड़ता है। ___ मनोदया का रथ आगे बढ़ता है, पति बज्रबाहु का रथ उनके पीछे-पीछे चल रहा है। बज्रबाहु अपनी ससुराल जा रहे हैं, इस समाचार से 26 राजकुमार मित्र अपने-अपने रथों पर सवार हो उनके साथ चल देते हैं। रास्ते में वसन्त नामक मनोहर पर्वत पर बज्रबाहु की दृष्टि
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