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________________ मध्यम सुपात्र का स्वरूप- जो सम्यग्दृष्टि जीव एक से लेकर ग्यारह प्रतिमाओं को निरतिचार पालता हो, उसे मध्यम सुपात्र कहते हैं। जघन्य सुपात्र का स्वरूप- जो सम्यग्दृष्टि ( क्षायिक, उपशम और क्षयोपशम तीनों ) आठ प्रकार के भयों से मुक्त हो अर्थात् इसलोक का भय, परलोक का भय, मरण का भय वेदना का भय, अनरक्षा का भय, अगुप्ति का भय, अकस्मात् का भय इनसे मुक्त हो और संसार, शरीर और भोगों से विरक्त रहता हो, निरन्तर अपनी निन्दा-गर्दा करता हो। स्व-पर भेद विज्ञानी हो चुका हो, जिसकी तत्त्वदृष्टि हो, पर्यायदृष्टि न हो, कुछ लोक व्यवहार भी करता हो परन्तु व्रताचरण की ओर नहीं लगा है, अव्रती है, उसे जघन्य सुपात्र कहते हैं। ब. कुपात्र जो सम्यग्दर्शन से रहित हो, मिथ्यादृष्टि हो, जैसा सुपात्र, उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से आचरण पालते हैं वैसा वह भी पालता हो । उसे क्रमशः उत्तम कुपात्र (द्रव्यलिंगी, मुनि), मध्यम कुपात्र (द्रव्यलिंगी अणुव्रती), और जघन्य कुपात्र (अगृहीत मिथ्यादृष्टि ) कहते हैं। स. अपात्र जो घोर मिथ्यात्वी जीव, व्रतशील, संयम से भी रहित हो, वे अपात्र कहलाते हैं। इनके भी तीन भेद - उत्तम अपात्र ( परिग्रहधारी मुनि), मध्यम अपात्र ( भाव व चरित्र से हीन ), और जघन्य अपात्र (गृहीत व अगृहीत को मानने वाला) होते हैं। अन्य मतावलम्बी कुछ अपात्रों पर दृष्टिपात करें लीनों कहाँ जोग जोरो, लोक को रिझाये वे कोई शीश घोर जटा, कोई कनफटा, कोई कोई मठवासी, कोई होई के ब्रह्म कोई चीनो नहिं, भोग से न मुख मोड़ो, को, धूम्रपान गतकै । कोई तो उतारे लटा, क्रिया में ही अटका । संन्यासी परतीर्थ में अटका, मन बस कीनो नाहिं; ऐते पर होते कहाँ, थोथे ज्ञान फटका ।। 3. समदत्ति-महापुराण में आचार्य जिनसेन ने कहा कि क्रिया, मन्त्र और व्रत आदि से जो अपने समान हैं तथा जो संसार समुद्र से पार कर वाला कोई उत्तम गृहस्थ है, उसके लिए धन-सम्पत्ति, रथ, रत्न, जमीन, सुवर्ण आदि देना अथवा मध्यम पात्र के लिए समान बुद्धि से श्रद्धा के साथ जो दान दिया जाता है, वह 'समदत्ति' समानदत्ति कहलाता है। दूसरे शब्दों में अपने समान धर्मात्मा अव्रत सम्यग्दृष्टि श्रावक को सम्पत्ति, धन, मकान, दुकान, रोजगार देना और अन्य प्रकार से उनका उपकार करना, जिससे वे धर्म साधन में दृढ़ बने रहें, धर्म से च्युत न हों, उसे समदत्ति समानदत्ति कहते हैं। 416
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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