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पात्र को आवश्यकतानुार कुछ देना, बालक को, युवा को, वृद्ध को उनकी आवश्यकतानुसार कुछ देना, पशु-पक्षियों को उनकी आवश्यकतानुसार कुछ देना, बिना माँगे देना, अपनी स्वयं की सन्तुष्टि के लिए अपना कुछ देना, और यहाँ तक कि पेड़-पौधों को भी देना-दान के क्षेत्र में आता है। प्रत्येक को पुरुषार्थपूर्वक अपना कुछ देना दान कहलाता है। अब प्रश्न यह उठता है कि आप धनवान हैं, आपको दान में क्या देना है? । आचार्य उमास्वामी तत्त्वार्थसूत्र-अ. 7 में लिखते हैं
अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम्॥३८॥ उपकार के लिए धन आदि अपनी वस्तु को देना दान है। अनुग्रह का अर्थ है अपनी आत्मा के अनुसार होने वाला उपकार का लाभ। स्वयं के आत्मा को लाभ हो इस भाव से किया गया कोई कार्य यदि दूसरे के लाभ के निमित्त हो जाये वह पर का उपकार हुआ। वास्तव में अनुग्रह 'स्व' का है. पर तो निमित्तमात्र है।
उपर्युक्त सूत्र में स्व-शब्द का अर्थ धन से है, और धन का अर्थ होता है-'अपने स्वामित्व या अधिकार की वस्तु।' इस प्रकार जो अपने अधिकार में वस्तु है उसमें से कुछ देना दान है। दान में परोपकार का भाव मुख्य रहता है और अपने उपकार का गौण। दान एक व्यवहार धर्म है। धनादि पर पदार्थ जिन पर लोकदृष्टि से अपना अधिकार है, व्यवहार से अपने हैं; उन्हें अपना जानकर ही दान दिया जाता है। लेन-देन व्यवहार है निश्चय में लेन-देन का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।
दान के भेद पात्र की स्थिति को ध्यान में रखते हए आचार्य जिनसेन ने चार प्रकार के दान कहे हैं। चतुर्धा वर्णिता दत्तिः दयापात्रसमन्वये॥
-महापुराण अर्थात-(1) दयादत्ति (2) पात्रदत्ति (3) समदत्ति और (4) अन्वयदत्ति (सकलदत्ति)। ये चार प्रकार की दत्ति या दान माने गये हैं। 1. दयादत्ति-महापुराण में उपकार करने योग्य प्राणियों के समूह पर दयापूर्वक मन-वचन-कर्म
की शुद्धि के साथ उनके भय दूर करने को दयादत्ति कहा गया है। वह करुणा का दान कहलाता है।
जो गिरते को ऊपर उठाये. उसे सहारा कहते हैं। जो डूबते को पार लगाये, उसे खेवन हारा कहते हैं। सुख में हमदर्द सारे, नजर आते हैं यहाँ। कष्टों में जो काम आये, उसे कष्टहारा कहते हैं।
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