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________________ यदि किसी मुनिराज की हिंसा में प्रवृत्ति चली गयी तो उसके निवारण करने के लिए प्रतिक्रमण आदि क्रियाएँ हैं। अहिंसा महाव्रत की पाँच भावनाएँ-आचार्य उमास्वामी कहते हैं किवाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि पञ्च।। अर्थात् (1) वचन गुप्ति-वचन को रोकना (2) मन गुप्ति- मन की प्रवृत्ति को रोकना (3) ईर्यासमिति-चार हाथ आगे जमीन देखकर चलना (4) आदाननिक्षेपण समिति- जीव रहित भूमि देखकर सावधानी से किसी वस्तु को उठाना-धरना 5. आलोकितपान भोजन- देखकर, शोधकर भोजन-पानी ग्रहण करना ये अहिंसा महाव्रत की पांच भावनाएं हैं। . ख. सत्य महाव्रत-आचार्य वट्टकेर मूलाचार में कहते हैं कि रागदीहिं असच्चं चत्ता परतावसच्चवचणुत्ति। सुत्तत्थाणविकहणे अयधावयणुज्झणं सच्चं॥ राग-द्वेष मोह, पैशुन्य अर्थात् चुगल खोरी, ईर्ष्या आदि के वश होकर असत्य नहीं बोलना, जिससे दूसरों को दुख हो, ऐसा सत्य वचन भी नही कहना, एकान्तवाद का त्याग करना, सूत्र ग्रन्थों को अन्यथा नहीं कहना ही सत्य महाव्रत है। पुरुषार्थसिद्धि के निम्न श्लोक में कहा गया है पैशुन्यहासगर्भ कर्कशमशमंजसं प्रलपितं च। अन्यदपि यदुक्तसूत्र तत्सर्वं गल्ति गदितम्।।96॥ महाव्रत के लिए यह आवश्यक है कि अधोलिखित पैशुन्य, हास्यगर्भ आदि से दूर रहे। 1. पैशुन्य-गर्हितवचन-दूसरे के दोषों को प्रकट करना (चुगली करना) 2. हास्यगर्भ-दूसरों के अशुभ राग उत्पन्न करने वाले हँसी, दिल्लगी, मजाक के वचन कहना, या भंड वचनों से भरे अश्लील गीत आदि गाना। 3. कर्कश-तू मूर्ख है, बैल है, नायक है, बेवकूफ है इत्यादि, बचन बोलना। 4. असमंजस-देश काल के अयोग्य वचन कहना जैसे धर्म स्थानों में पाप जनक बातें करना, विवाह आदि हर्ष के मौके पर शोक की तथा शोक के अवसर पर हर्ष की बात करना या बिना बताये ऐसी बात कह देना जो दूसरों को तो क्या अपने लिए भी हानिकारक हो। 5. प्रलापित-प्रलाप या बकवास करना, बिना प्रसंग के या सुनने वाले की रुचि न होने पर भी व्यर्थ बोलना। सत्य महाव्रत की पाँच भावनाएँ-आचार्य उमास्वामी कहते हैं कि- क्रोधलोभभीरुत्वहास्य प्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषणं च पञ्च। 202
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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