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मरा है, नम्बर है, रोम स्थाअन्य कष्टों से घिरा हम है, इस प्रकार वह शीर के प्रति आसक्तिपटाता चला जाता है। उपराध्ययन सूत्र में शरीर-अस्सी के इसी रूप का वर्णन आया है। हरिभद्रहरि ने कामोसम का बई शेषपूर्ण प्रवृत्तियों का त्याग' किया है। इसका दूसरा प्रकार साधना या अभ्यास के
जैन साधु तथा भावकों के लिये जो नित्य क्रियाएं बताई गई है उनमें इसका महत्वपूर्ण स्थान है। प्रत्येक ब्रत को स्वीकार करने तथा समास करने से पहले कायोत्सर्ग किया जाता है। कहीं यह बात्म दोषों का दिन करने के लिये होता है और कहीं तीर्थकर या वीराग आत्माबों का किचन करने के लिये। पहला आत्म-शुद्धि के लिये किया जाता है और दूसरा यात्मबल के विकास के लिये।
पतंजलि ने योग के जो बाठ अंग बताये हैं उनमें से प्रथम दो अर्थात् यम और नियम जैन दृष्टि से संकर के अन्तर्गत है। शेष ६ निर्जरा में आते हैं। उनमें से प्राणायाम का विवेचन जैन साहित्य में अधिक नहीं मिलता। शेष ५ कायोत्सर्ग में आ जाते हैं। उनमें पहला आसन है, इसका अर्थ है शरीर की हलचल छोड़कर उसे स्थिर करना। इसके पश्चात् प्रत्याहार है जिसका अर्थ है इंद्रियों को अपने-अपने विषयों से हटाकर अन्तर्मुखी बनाना। दूसरे शब्दों में इसका अर्थ होगा-मन को बाहर जाने से रोकना । उसके पश्चात् धारणा, ध्याम और समाधि है। जहाँ मन को किसी एक विषय पर स्थिर किया जाता है। ये तीनों उत्तरोत्तर स्थिरता की तीन अवस्थायें है। समाधि के दो भेद है। संप्रशात समाधि और असंप्रज्ञात समाधि। संप्रज्ञात समाधि में चित्त किसी बालबंन पर स्थिर रहता है अर्थात् उसमें किसी विषय का चिन्तन बना रहता है। असंप्रज्ञात समाधि में वह सर्वथा शत्य हो जाता है। व्युत्सर्ग का भी अन्तिम लक्ष्य यही है। किन्तु अभ्यास के रूप में शरीर को स्थिर करके किसी एक विषय का चिन्तन किया जाता है। अन्त में उसका भी निरोध हो जाता है। इसी को जेन परिभाषा में शुक्ल ध्यान कहा जाता है।
बौद्ध साधना में ध्यान के अनेक रूप बताये गये है। उनमें आणापान सत्ती का बहुत अधिक प्रचार है। इसमें साधक सीधा लेटकर समस्त अंगों को दीला छोड़ देता है। अपना ध्यान सांस पर जमा लेता है किन्तु उसके लिये अपनी ओर से कोई प्रयल नहीं करता। उसे अपने स्वाभाविक रूप में चलने देता है। धीरे-धीरे उसका ध्यान भी हटता चला जाता है और मन सर्वथा शून्य हो