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अन्य दार्शनिकों ने भी अपने इष्ट देव के लिए कहा है-सर्व पश्यत वा मा वा, स्त्वमिष्ट पश्यति। अन्य कीट, पतंगों का ज्ञान भले ही वे करें, अपने इष्ट तत्व को वो देखते ही है। तात्पर्य यह है कि अपनी आत्मा से बढ़ कर और इष्ट तत्व क्या हो सकता है! इस अपेक्षा से जैन दर्शन की हम आत्म-दर्शन कह सकते हैं।
जैनागमों में बताया गया है यात्मा के दो प्रकार है-द्रव्य तथा भाव । द्रव्य आत्मा असंख्य प्रदेशात्मक होती हैं, उन असंस्थात प्रदेशों को विभाजित नहीं किया जा सकता। भाव आत्मा के विविध रूप है। संक्षेप में द्रव्य
आत्मा एक हे ओर भाष बाल्माएँ सात है। आचार्यश्री मिशु स्वामी ने एक 'अनेरी आत्मा' का भी प्रतिपादन किया है जिसमें उपरोक्त आत्माओं के अतिरिक्त अन्य कोई भी भावात्मा समाविष्ट हो सकती है। इस प्रकार आल्मा के विविध रूपों को पहचान लेने के पश्चात् यह जानना उपयुक्त होगा कि आत्मा बद्ध है या मुक्त! यदि वह बद्ध है तो उसे मुक्त करने के क्या उपाय है ? इन प्रश्नों के समाधान के लिए हमें आश्रव और संवर के भेद-प्रमेदों पर भी विचार करना होगा और यो आत्मा के रहस्यों का अन्वेषण करतेकरते हम मोक्ष तत्त्व के प्रांगण तक पहुंच जायेंगे। इसलिए प्रत्येक कार्य का शुभारम्म अपनी आत्मा से ही करना चाहिये।
आत्मा अमर हे या मरणधर्मा : अभी एक वक्ता ने कहा-आत्मा अमर है। पर जैन दर्शन का सिद्धान्त है-प्रत्येक बात को अपेक्षा से समझो। इस दृष्टि से आत्मा क्या, संसार का प्रत्येक पदार्थ अमर है। मृत्यु का अर्थ नाश हो जाना, न कि अत्यन्ताभाव हो जाना है। दीपक बुझ गया तो प्रकाश का अभाव हो गया किन्तु अन्य परमाणु तो विद्यमान ही हैं। इस दृष्टि से आत्मा अमर है और मरणधर्मा भी। इसी प्रसंग का सूक्ष्म विश्लेषण भीमज्जयाचार्य ने अपने 'भीणी चरचा' नामक अन्य में किया है। वहां गुणस्थान के आधार पर यह चर्चा चली है। कर्म विशोधि के बाधार पर आत्मा का जो क्रमिक विकास होता है उसे गुणस्थान कहते है। उसके १५ भेद है। उसमें तीन गुणस्थान-१३ वां, १२ वा और ३रा ऐसे हैं जहाँ पर मृत्यु नहीं होती, क्योंकि १२खें और १३वें गुणस्थान में आने के बाद १४वें गुणस्थान में आना अवश्यम्भावी और ३२ मिन गुणस्थान में अनिर्णायक स्थिति होने के कारण किधर जाना है, यह निश्चय ही नहीं हो पाता और पूर्व निश्चय के बिना मृत्यू भी नहीं होती। अतः इन उपरोक