________________
[ १७ } विचार प्रकट करने का पूरा अधिकार है किन्तु वस्तुस्थिति मिन्न है। हमारी इच्छा यह रहती है कि सर्वसाधारण दूसरे के विचारों को न सुने। धार्मिक जगत् में यह सिखाया जाता है कि विरोधी विचारों को सुनना मिख्याल है और मिथ्यात्व पाप है। धर्म में श्रद्धा रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को इस पाप से बचना चाहिये। सावधान रहने पर भी यदि विरोधी की बात कान में पड़ जाय तो उसे हृदय में स्थान नहीं देना चाहिए। उसके गुणों पर ध्यान न देकर दोष निकालने का प्रयास करते रहना चाहिए। सम्यक्त्व की रक्षा के नाम पर किया जाने वाला यह प्रयल अनेकान्त को छोड़कर एकांत की उपासना है। जेन परिभाषा में इसे मिथ्यात्व कहा जायगा।
हम प्रतिदिन सर्वमैत्री की घोपणा करते हैं। मित्रता का अर्थ है दूसरों के प्रति घृणा के स्थान पर प्रेम की स्थापना किन्तु यदि हम अपने साथी के दोष प्रगट करने में लगे रहते हैं, उसे सम्मान या सत्कार नहीं देना चाहते तो इसका अर्थ है कि हमारी मित्रता की घोषणा वंचना है, दम्भ है। उसके द्वारा हम अपने आपको ठगते हैं। जो व्यक्ति प्रतिदिन प्रातः और सायं दोनों समय सच्चे मन से मित्रता की घोषणा करते हैं, उसके मन में किसी के प्रति घृणा नहीं रह सकती। वह सब से प्रेम करेगा, सभी का आदर करेगा, सर्वत्र दोषों को छोड़ कर गुण-ग्रहण करने का प्रयत्न करेगा। इसके बिना मित्रता की घोषणा केवल शवपूजा है।
विचारों के दो रूप हम जो भोजन करते हैं वह दो प्रकार से परिणत होता है। जो पच जाता है वह रक्त, मांस आदि धातुओं में परिणत होकर शरीर का पोषण करता है। जो नहीं पचता शरीर उसे मल के रूप में बाहर निकाल देता है। यदि वह बाहर नहीं निकलता तो विकार उत्पन्न करता है, शरीर को विषाक्त कर डालता है।
यही बात विचारों की है। विश्व एक पाठशाला है, उससे नये-नये विचार मिलते रहते हैं। पुस्तक तथा विद्वानों से भी विचार प्राप्त होते हैं। जो हमारे जीवन में घुल जाते हैं।
कुछ ऐसे होते हैं जिन्हें पचाना सम्भव नहीं होता। बे जीवन में नहीं उतरते। उन्हें मुला देना चाहिये या तटस्थ वृत्ति रखनी चाहिये। ऐसा न होने पर ये दुरामह उत्पन्न करते हैं जो कि मन का रोग है।