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पड़ते हैं। स्पष्ट रूप से हिन्दी के प्रेमास्यानक काव्यों की रचना चौपाई-दोहा . शैली में हुई है जो अपभ्रंश काव्यों की देन है। यह अवश्य है कि अपभ्रंश । के काव्यों की रचना सन्धि, परिच्छेद, विक्रम या भास आदि में की गई है और सूफी सया प्रेमाल्यानक काव्यों की रचना शीर्षकवर है। परन्त प्राकृत की 'गउडवह', "कुवलयमालाकहा" और अपभ्रंश में हरिभद्रसूरि रचित "जेमिणाहचरि" सर्गहीन रचनाएं हैं। संभव है कि इस प्रकार की रचनाएं और मी 'लखी गई हों पर काल-प्रवाह में बच न पाई हो। इस सम्बन्ध में श्री परशुराम चतुर्वेदी द्वारा निष्कर्ष रुप में अभिव्यक्त विचार ही उचित जान पड़ते हैं-"जिस समय हिन्दी के सूफी प्रेमाख्यानों की रचना आरम्म हुई। उस समय तक उनके रचयिताओं के लिए ऐसी अनेक बातें प्रस्तुत की जा चुकी थी जिनका बे किसी न किसी रूप में बड़ी सरलता से उपयोग कर सकते थे। क्या कथा-वस्तु, क्या काव्यरूप, क्या रचना-शैली, और कथा-रूढ़ियों जैसी सामग्री, इनमें से कदाचिद् किसी के लिए भी उन्हें न तो कोई सर्वथा नवीन मार्ग निर्मित करने की आवश्यकता थी और न अधिक प्रयास ही करने की।"" और यह सर्वमान्य सत्य है कि सूफी प्रेमाख्यानकों में प्रयुक्त अधिकतर कथाएँ भारतीय लोक जीवन की हैं। उदाहरण के लिये-अपभ्रंश की "विलासपती कथा" और दुःखहरनदास कृत "पुहुपावती" में अद्भुत साम्य है। इसी प्रकार पद्मावती तथा मृगावती की कथाए' भी जैन कथाओं से बहुत कुछ मिलतीजुलती हैं । परम्परागत प्रचलित भारतीय लोक कथाओं को ग्रहण कर सूफी कवियों ने प्रेम अभिव्यंजना तथा अलौकिक प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए कहींकहीं उनमें परिवर्तन भी किया और अन्तर्कथाओं को जोड़ जन-मानस में अपने आदशों की प्रतिष्ठा करने का भी प्रयत्न किया। वस्तुतः वे रीति को छोड़ कर भारतीय जनता के बीच लोकप्रिय नहीं बन सकते थे। इसलिए कथा, चरित्र, शैली, भाषा और अभिव्यक्ति के अन्य उपादानों को भी उन्होने ग्रहण कर आदर्शों का प्रचार किया। अपभ्रश के कथा तथा चरितकाव्यों से ये केवल एक बात में ही भिन्न परिलक्षित होते हैं और वह है-चलते हुए कथानक में अलौकिक प्रेम की व्यंजना । परन्तु यह विशेषता जायमी के 'पद्मावत'
१-'लोकगाथा और सूफी प्रेमाख्यान' शीर्षक लेख, प्रकाशित 'हिन्दु
स्तानी माग २३, अंक २. पृ० ३८। २-देखिए, कुतुबुन कृत मृगावती-डा० शिवगोपाल मिश्र, हिन्दी
साहित्य सम्मेलन, प्रयाग।