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1 १५६ ] के बीज अबश्य यत्र-तत्र विकीर्ण मिलते हैं। सूत्रकृतांग में जहाँ इतर दर्शनों, . अभिमतों की मीमांसा की गई है वहाँ स्वल्पतम बौद्ध-मान्यताओं का भी प्रसंगोपात जिक्र हुआ है। फिर भी नामोल्लेख पुरस्सर तत्सम्बन्धी कुछ भी वर्णन नहीं मिलता। इसके विपरीत बौद्ध साहित्य भगवान् महावीर के विषय में अतीव मुखर है। म. बुद्ध सहित उनके समय में सात धर्मनायक मारतभूमि में विहार करते थे। जिनमें उनका (बुद्ध का ) सम्बन्ध, अच्छा या बुरा सबसे अधिक महावीर के साथ रहा है, यह त्रिपिटक स्वयं बतला रहे है।
हमारा स्वतंत्र या मध्यस्थ चिन्तन यह निर्णय करता भी नहीं हिचकिचाता कि महात्मा बुद्ध, भ० महावीरके साथ आक्रामक, आक्षेपात्मक व निन्दात्मक दृष्टि से पेश आये हैं। उनकी खण्डनात्मक दृष्टि प्रखर रही है।
बौद्ध साहित्य में भ० महावीर का क्यों स्थान रहा है। इसी प्रतिपाद्य को लेकर लेखिनी मंजिल की ओर बढ़ेगी। ___ यह स्पष्ट है कि बौद्ध साहित्य के आधार पर हम महावीर के यथार्थ व्यक्तित्व को कभी नहीं पा सकते। पर इतना तो अवश्य जानेंगे कि बुद्ध महावीर को किस दृष्टि से देखते थे ?
भगवान् महावीर तथा महात्मा बुद्ध दोनों ने ही तत्कालीन जनभाषा में अपनी उपदेश-सरिताएं प्रवाहित की। वह जन भाषा मागधी थी। भगवान् महावीर ने जिस भाषा को अपनाया वह अर्धमागधी कहलाई। समग्र जैनागम उसीमें संकलित हुए।
भगवान बुद्ध के उपदेश वाक्यों को 'मागधी' में 'पलियाप' कहा जाता था। काल-प्रवाह से वही शब्द बुद्ध-वचनों की भाषा का प्रतीक बन गया। वही आज पाली भाषा के नाम से जन-जन के मुख पर मुखरित है। सारांश में महात्मा बुद्ध के उपदेशों का संकलन करनेवाली पाली भाषा है। महात्मा बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद ई० पू० ४०० में राजगृही के वेभार गिरि की सप्तपणी गुहा में महाकाश्यप प्रभृति ५०० अर्हत् मिची की विराट् संगीति हुई। उसमें बौद्धधर्म के आधार प्रन्यों-त्रिपिटक और निकायों का बर्तमान रूप में संकलन हुआ। उसी बौद्ध साहित्य में भगवान महावीर, उनके सिद्धान्त, उनकी महत्ता या न्यूनता, संघ, सर्वशता आदि को अभिप्रेत कर अनेकों उल्लेख मिलते है।
क्या बौद्ध साहित्य में उल्लिखित नाथपुत्तादि नाम महाबीर के ही घोतक हैं।