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[ १५१ ट्य तथा सामजस्य रहा है वे भगवान् श्री महावीर तथा महात्मा बुद्ध ऐतिहा.. सिक युग-पुरुष के रूप में हमारे सामने आते हैं।
इतिहासज्ञों के अनल्प आयास ने इस तथ्य को पूर्ण अनावृत कर दिया है कि भगवान महावीर तथा महात्मा बुद्ध समसामयिक थे। अनेक सुप्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ताओं के चिर मन्थन के बाद मुनिश्री नगराजजी ने तथ्य प्रस्तुत किया है कि भगवान महावीर तथा बुद्ध की समसामयिकता ई० पू० ५८२ से ई० पू० ५२७ तक (५५ वर्ष) रही। धर्म-प्रचार की समसामयिकता ई० पू० ५४७ से ५२७ (२० वर्ष) तक रही। तात्पर्य की भाषा में उक्त दोनों महापुरुष सम समय में होने वाले प्राचीन भारत के महान् स्वतंत्र विचारक थे। दोनों के जीवनप्रसंग अतीव ही सुमधुर, अनेकों के लिए प्रेरणापद तथा मार्गदर्शक रहे हैं।
वे दोनों विभूतियाँ विहार गण राज्य में राजकुमार के रूप में हमारे समक्ष आई। दोनों ने यौवन की मादकता में अपार राज्य-वैभव छोड़, साधना का कठोर मार्ग चुना। दोनों ही श्रमण संस्कृति के उन्नायक व बृहत् भिक्षु-संघ के अधिपति बने । दोनों की ही उपदेश-सरिताए बिहार प्रदेश, विशेषतः राजगृही, नालन्दा, श्रावस्ती आदि के अंचल में कल-कल निनाद करती हुई वहीं। अढाई हजार वर्ष की सुदीर्घ अवधि के बाद भी दोनों की महनीयता तथा प्रशस्यता के अंकुर कोटि कोटि जनता के हृदय-क्षेत्र में उप्त है।
उक्त अनेकों बाह्य समानताएँ जहाँ उनको एकता के सूत्र में पिरोती प्रतीत होती है वहाँ अनेकों उल्लेख उनके अन्तर साम्य को प्रस्तुत करनेवाली पर्याप्त सामग्री प्रस्तुत करते हैं। जैसे वे दोनों शांति और अहिंसा के परम उपासक तथा प्रचारक थे। दोनों ने जातिवाद तथा वर्ण व्यवस्था को अतात्विक घोषित करते हुए उनका उग्र विरोध किया। दोनों ही प्रव्रज्या तथा अपरिग्रह के आदर्श पथ के पथिक व उपदेष्टा थे। दोनों ही निर्वाणवादी थे। दोनों के उपदेश अपने-अपने आगमों में संग्रहीत है। श्री महावीर के अनुयायी इन्हें सुत्तागम की अभिधा से अभिहित करते हैं तो बौद्ध भी अपने सुत्तपिटक के पांचो निकायों को दीघागम, मज्मियागम, संयुत्तागम, अंगुत्तागम और खुद्दगागम कहते हैं। यहाँ तक कि मर्वास्तिवाद आदि निकाय तो आगम शब्द ही प्रयुक्त करते है। आगम की भाँति पिटक शब्द भी दोनों परम्पराओं में मान्य रहा है। जैन अपनी अंगागम-संहिता को गणि-पिटक कहते हैं, वहाँ बौद्ध उन्हें त्रिपिटक संज्ञा देते हैं।
विषय तथा प्रतिपाय की दृष्टि से भी कई प्रन्थ बहुत सामञ्जस्य रखते हैं।