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________________ [ ११७ ] अभिघात बुद्धिपूर्वक नहीं कहा जा सकता। न काक यह जानता है कि मेरे पर ताल गिरेगा और न ताल का ही अभिप्राय होता है कि मैं काक पर गिरूँ।' फिर भी वैसा हो जाता है। और भी जेसे अजा पर कृपाण का प्रहार, अन्धे के कण्टक-चुभन, आतुर का भेषज सेवन ये सब अनभिसन्धिपूर्वक होते हैं। जाति, जरा, मरण, दुःख, सुख सब यादृच्छिक हैं। इन्हें कर्म जन्य या बुद्धिपूर्वक माना वृथाभिमान है। बौद्ध और लोकायतिक आत्मा ही स्वीकार नहीं करते। ऐसी स्थिति में आत्मा की क्रिया का प्रश्न ही नहीं उठता और क्रिया के अभाव में बन्धन भी किसके हो? बौद्धों का अभिमत है--"क्षणिकाः सर्वसंस्काराः"। अतः ये अक्रियावादियों की श्रेणी में आ जाते हैं। सांख्य भी अक्रियावादी है। उसके अभिमत में आत्मा सर्वव्यापी और अक्रिय है। "प्रकृतिः करोति, पुरुषः उपभुक्ते कर्म प्रकृति करती है और उसका उपभोग कर्ता पुरुष है। आत्मा अमूर्त है, नित्य है अतः आकाश की तरह निष्क्रिय है ; वह कोई कम नहीं करता। जैसा कि कहा गया है--"अकर्ता निर्गुणो भोक्ता आत्मा कापिल-दर्शने"। ___ अज्ञानवादीः-इनका अभिमत है-"अज्ञानमेव श्रेयः" अशान ही कल्याणकर है। ज्ञान से परस्पर विवाद बढ़ता है। सर्वज्ञ कोई है नहीं, जिसके वाक्यों को प्रामाणिक माना जा सके। यदि है भी तो वह अव. गद्रष्टा के दृष्टि का विषय नहीं बनता और "न सत्रंशः सर्व जानाति" असर्वज्ञ अधुरा होता है। वह सब पदार्थों को सम्यक् प्रकार से जानने में अक्षम है। अतः विभिन्न मत-मतान्तरों में विवाद होना सहज ही है। जैसे एक आत्मा के विषय में ही कोई आत्मा को सर्वगत मानता है, काई असर्वगत ; कई आत्मा को मूर्त, कई अमूर्त ; कई अंगुष्ठ पर्वमात्र, कई श्यामाक तण्डुल मात्र, कई हृदय-मध्यस्थित और कई ललाट व्यवस्थित मानते हैं। इसलिए ज्ञान कोई आवश्यकता या महत्व नहीं रखता। अज्ञानी किसी के सिर पर पाद-प्रहार भी कर दे फिर भी चित्त-शुद्धि के कारण उतना दोष का भागी नहीं होता और न लोक भी कुपित होते हैं, अज्ञानी समझ उसे क्षमा कर देते है। अतः अशान ही श्रेयस्कर है। इनके ६७ भेदों' का उल्लेख मिलता है। यथा--जीवादि व पदार्थों के (१) सत्व, (२) असत्व, (३) सदसत्व, (४) अवाच्यत्व, (५) सद्वाच्यत्व, (६) असदवाच्यत्व, (७) सद्सद्वाच्यत्व, ये सात विकल्प करने से ६३ भेद होते हैं। उत्पत्ति के सत्त्वादि ४ विकल्प होते है। कुल मिलाकर ये ६७ मेद है। इनका १-० ११ १०प० १६-१७
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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