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[ ८१ बनाया। सारे तमिल प्रदेश में जैन धर्म फैल गया और शवान्दियों तक वह वहाँ राज-धर्म के रूप में माना जाता रहा। तमिल साहित्य का भीगणेश भी जेन विद्वानों के द्वारा हुआ। व्याकरण आदि विभिन्न विषयों पर उन्होंने गद्यात्मक व पद्यात्मक ग्रन्थ लिखे।
ईसा की प्रथम शताब्दी में आचार्यश्री कुन्द-कुन्द मद्रास के निकट पोन्नूर की पहाड़ियों में रहते थे। वल्लवर का आचार्य कुन्द-कुन्द से सम्पर्क हुआ। वे श्री कुन्द-कुन्दाचार्य के महान् व्यक्तित्व के प्रति आकर्षित हुए और कुन्दकुन्दाचार्य ने उनको अपना शिष्य बना लिया। अपनी रचना 'कुरल' अपने शिष्य तिरुवल्लुवर को सौंपते हुए उन्होंने आदेश दिया-"देश में भ्रमण करो और इस ग्रन्थ के सार्वभौम नेतिक सिद्धान्तों का प्रचार करो।" साथ-साथ उन्होंने अपने प्रिय शिष्य को चेतावनी भी दी, "देखो! ग्रन्थ के रचयिता का नाम प्रकट मत करना; क्योंकि यह अन्य मानवता के उत्थान के लिये लिखा गया है ; आत्म-प्रशंसा के लिए नहीं।"
प्रमाणों के अधिक विस्तार में हम न मी जाएं तो उस ग्रन्थ का आदि पृष्ठ ही एक ऐसा निन्द्र प्रमाण है जो 'कुरल' को संबोंशतः जेन-रचना प्रमाणित कर देता है। प्रथम प्रकरण ईश्वर-स्तुति का है। हमें देखना है कि रचयिता का वह ईश्वर केसा और कौन होता है ? मुख्यतः ईश्वर की परिभाषा ही जेनध में को अन्य धर्मों से पृथक रखती है। कुरल की ईश्वर-स्तुति में कहा जाता है-धन्य है वह पुरुष जो आदि पुरुष के पादारविन्द में रत रहता है, जो कि न किसी से राग करता है और न किसी से देष।' जैन संस्कृति के मर्मज्ञ सहज ही समझ सकते है कि इस स्वति-वाक्य में कविता का हार्द क्या रहा है ? यह तो स्पष्ट है ही कि रचयिता अपने ग्रंथ को सर्वमान्य प्रार्थना से अलंकृत करना चाहता है। ग्रन्थ के नैतिक उपदेशों से जैन-जेनेतर सभी लाभान्वित हों, यह इसका अभिप्रेत रहा है। इन कारणों से उसने मंगलाचार में सार्वजमिकता बरती है। रचयिता का अभिप्राय इतने में ही अभिव्यक्त किया जा सकता कि न ऐलों की स्थति हो और बेबिक लोग उसे अपने देवों की स्पति माने। परमार्थ नष्ट न हो और समन्वय सब जाए । अन्य जेन वाचायों ने भी इस पद्धति का व्यवहार किया है।
पक्षातोन मे पीरो, नवकविताविक
बुकिम वचनं यस्य, सस्य कार्य: परिमा। १- मास प्रारकर