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चक्रवर्ती, कामदेव, इन्द्र आदि का महा सुन्दर और मजबूत शरीर प्राप्त होता है । जो श्रावक-धर्म पालते हैं वे निरोग और प्रबल शरीर के धारी होते हैं। जो निर्मथ मुनियों और त्यागियों को निन्दा करते हैं, वे कोढ़ी होते हैं, जो दूसरों की विभूति देख कर जलते हैं कषायों और हिंसा में आनन्द मानते हैं वे बदसूरत, अङ्गहीन, कमजोर और रोगी शरीर वाले होते हैं। ७. गोत्रकर्म-जो अपने रूप, धन, ज्ञान, बल, तप, जाति, कुल या अधिकार का मान करते हैं, धर्मात्माओं का मखोल उड़ाते हैं, वे नीच गोत्र पाते हैं और जो सन्तोषी शीलवान होते हैं अहंतदेव, निग्रंथ मुनि तथा त्यागियों और उनके वचनों का
आदर करते हैं वे देव तथा क्षत्री, ब्राह्मण, वैश्य आदि उच्च गोत्र में जन्मते हैं। ८. वेदनीयकर्म-जो दूसरों को दुःख देते हैं, अपने दुःखों को शान्त परिणामों से सहन नहीं करते, दूसरों के लाभ और अपनी हानि पर खेद करते हैं, वह असाता वेदनीय कर्म का बन्ध करके महादुःख भोगते हैं और जो दूसरों के दुःखों को यथाशक्ति दूर करते हैं, अपने दुःखों को सरल स्वभाव से सहन करते हैं, सब का भला चाहते हैं, उन्हें साता वेदनीय कर्म का वन्ध होने के कारण अवश्य सुखों की प्राप्ति होती है।
. इन पाठ कमों में से पहले चार प्रात्मा के स्वभाव का घात करते हैं इस लिये 'घातिया' और बाकी चार से बात नहीं होता, इस लिये इन को 'अघातिया' कर्म कहते हैं।
पाँच समिति', पाँच महावत', दश लाक्षण धर्म', तीन गुप्ति, बारह भावना और २२ परीषहजय के पालने से कर्मों के आस्रव का संबर होता है और बारह प्रकार के तप
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१-६. “ rhe way for man to become God." This book's rol I.
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