SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कतिपय मधुर संस्मरण [ ले० - श्रीमती ब्र० पं० चन्द्राबाई अधिष्ठात्री, जैन-बाला-विश्राम आरा ] किसी भी पुण्य व्यक्ति के संस्मरण जीवन की सूनी, नीरस घड़ियों में मधु घोलकर उन्हें सरस बना देने में सक्षम हैं। मानव हृदय, जो सतत वीणा के समान मधुर भावनाओं की भंकार से झंकृत रहता है, पुण्य चरित्रों के स्मरण से पूत हो रसानुभूति में निमज्जित होने लगता है। मानव की श्रमर्यादित श्रभिलाषाएँ नियन्त्रित होकर जीवन को तीव्रता के साथ आगे बढ़ाती हैं । फलतः पुण्य-पुरुषों के संस्मरण जीवन की धारा को गम्भीर गर्जन करते हुए सागर में विलीन नहीं कराते, बल्कि हरे-भरे कगारों की शोभा का श्रानन्द लेते का स्पर्श कराते हैं; जहाँ कोई भी व्यक्ति वितर्क बुद्धि का परित्याग और पर- प्रत्यक्ष का अल्पकालिक अनुभव करने लगता है। हुए उसे मधुमती भूमिका कर रसमग्न हो जाता है। आपका स्वनामधन्य स्व० भी बाबू देवकुमारजी का पुण्य चरित्र ऐसा ही महान् है । आपका एक-एक संस्मरण अपने दिव्य श्रालोक से जीवन तिमिर को विच्छिन्न करने में सक्षम है । श्रापका जैसा सरल, शुद्ध, पवित्र और उदार हृदय कम ही व्यक्तियों का होता है । श्राप सादगी, सरलता, सहृदयता, मिलनसारता, पर दुःख कातरता एवं विद्वत्ता की मूत्ति थे । व्यक्तित्व जैन जगत् की ही विभूति नहीं है, किन्तु समस्त हिन्दी जगत् और श्रार्य - जगत के लिये गौरव की वस्तु है । बाबूजी के महान् व्यक्तित्व के इतने मधुर स्मरण श्राज भी धूमिल स्मृति कोष में संचित हैं, जिनका यथार्थ चित्रण करना संभव नहीं । उनका प्रत्येक कार्य, चाहे वह छोटा था या बड़ा प्रेरणा और स्फूर्ति देने के लिये महत्वपूर्ण स्थान रखता है। उनके कार्यों की सफलता का प्रधान कारण था, जीवन में धर्म को उतारना । उनका बहिरंग और अन्तरंग जीवन धार्मिक संस्कारों से श्रोत-प्रोत था। एक शब्द में उनके व्यक्तित्व का विश्लेषण किया जाय तो यों कहा जा सकता है कि बाबूजी अन्तरंग में सदा बालक और बहिरंग में युवक थे। उनका हृदय सतत बालक के समान निर्विकारी रहा था। अपनी स्टेट का शासन कार्य करते हुए भी वे श्रावेश और वेग से रहित थे । सांसारिक प्रलोभनों से वह कभी अभिभूत नहीं हुए। समाज को अपना परिवार समझना; समाज का उतना ही ध्यान रखना, जितना अपने परिवार के प्रत्येक सदस्य की सुख सुविधा का ध्यान रखा जाता है, बाबूजों की विशेषता थी । बाबूजी बराबर कहा करते थे कि अपने लिये कीट-पतंग भी जीवित हैं; श्रतः यदि हमारा जीवन भी अपने ही उदरपोषण में समाप्त हो जाय तो हमारी मानवता क्या रही ? मानव का अर्थ ही है कि जो विचारशील हो और परस्पर मैं सहयोग रखता हो, जिसका प्रत्येक क्रिया व्यापार अपने समुदाय के हित के लिये हो । हमें स्मरण है कि एकबार कोई जैनी भाई भी सम्मेद शिखर के यात्रार्थ द्वारा आये हुए थे ।
SR No.010080
Book TitleBabu Devkumar Smruti Ank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1951
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size47 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy