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________________ 媽 [ भाग १८ जिस जैनधर्म का "देव, शास्त्र, गुरु" इन त्रिदेवों के अतिरिक्त दूसरा कोई आधार है ही नहीं, उसके एक महत्वपूर्ण सर्वोत्तम अंग (शास्त्र) की ध्वंसोन्मुखता देखकर भला किस धर्मात्मा का हृदय नहीं दहल उठेगा ? अस्तु, भाण्डारों में अरक्षित शास्त्रों की अपनी ओर से अलमारियों तथा वेष्टन के कपड़े का पर्याप्त प्रबन्ध कर वहाँ तात्कालिक रक्षा की व्यवस्था अपनी ओर से आपने कर दी । दक्षिण प्रान्तस्थ सभी शास्त्रागारों को आपने छान डाला । जहाँ जैसी आवश्यकता थी उसकी पूर्ति कर शास्त्ररक्षा करना ही एकमात्र ध्येय अपना बनाते हुए तीर्थप्रवास से आप 1 किन्तु स्वास्थ्य आपका साथ देने से विरत हो चला । अतः मृत्युमहोत्सव का दिवस निकटस्थ देखकर शास्त्ररक्षा विषयक अपना अन्तिम उद्गार निम्नांकित रूप में प्रकट किया, जो भवन में संरक्षिन आपके चित्र के नीचे अंकित है "आप सब भाइयों से और विशेषतया जैन समाज के नेताओं से मेरी अन्तिम प्रार्थना यही है कि प्राचीन शास्त्रों और मन्दिरों और शिलालेखों की शीघ्रतर रक्षा होनी चाहिये, क्योंकि इन्हीं से संसार में जैनधर्म के महत्व का अस्तित्व रहेगा। मैं तो इसी चिन्ता में था, किन्तु अचानक काल आकर मुझे लिये जा रहा है। मैंने यह प्रतिज्ञा की थी कि जबतक इस कार्य को पूरा न कर देता तबतक ब्रह्मचर्य का पालन करूँगा। बड़े शोक की बात है कि अपने अभाग्योदय से मुझे इस परम पवित्र कार्य के करने का पुण्य प्राप्त नहीं हुआ, अब आप ही लोग इस पवित्र कार्य के स्तम्भ स्वरूप हैं, इसलिए इस परम आवश्यक कार्य का संपादन करना आप सबका परम कर्तव्य है ।" भास्कर यह भीष्मप्रतिज्ञा आपने तीस वर्ष की अवस्था में की थी। जैन समाज के प्रति आपका यह कारुणिक अतएव मार्मिक निवेदन पढ़कर मुझे राम वनवास की बात याद आ जाती है। अवध-नरेश राजा दशरथ की आज्ञा से राम, सीता और लक्ष्मण को 'सुमन्त ने स्थ में बैठाकर वन में पहुचा दिया है। वटवृक्ष के नीचे राजवेश-भूषाका परित्याग कर वटक्षीर से रामचन्द्रजी अपनी तथा लक्ष्मणजी की जटा की रचना कर तपस्वि वेष की सजा से सज्जित होने लगे । उस समय वृद्ध सचिव सुमन्तजी ने यह दुश्य देखकर कहा है कि हा ! हन्त !! दुर्दैव ! ! ! जिन रघुवंशी राजाओं ने चौथेपन में राज्य का शासनभार अपने समर्थ पुत्रों को सौंपकर संन्यास निमित्त वनका आश्रय लिया था, उसी रघुकुल के ये नवांकुर दुधमुंहे बच्चे बन में तपस्वियों-जैसा बाना बनाकर रह रहे हैं। मैं जैन - सिद्धान्त-भवन में वर्षों लगातार लायब्रेरियन के पदपर रह चुका हूँ। तीर्थयात्रियों में बहुसंख्यक सहृदय जैन यात्री भवन में आपके चित्र के
SR No.010080
Book TitleBabu Devkumar Smruti Ank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1951
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size47 MB
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