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किरण १]
बाबू देवकुमारजी : एक संस्मरण
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देर अब किस बात की। मैं कुछ पुष्प लेकर आपको कोठी को चला। पर छात्रों से
आपकी सात्त्विक दानशूरता की प्रचुर प्रशंसा सुनकर मेरे असात्त्विक अन्तःकरण में समुदित छल छम ने आपसे तत्कालीन आवश्यकता से भी अधिक मांग करने को मुझे प्रोत्साहित कर दिया। कुछ आशीर्वादात्मक श्लोक पढ़कर दो-एक पुष्प आपके करकमल में मैंने रख दिये। आपने मेरी ओर देखकर कहा-'आपका घर कहाँ है? कौन हैं ? कैसे आये ?” इनके उत्तर में जाति प्रामादि कहकर कैसे आये-इसका उत्तर देते समय आपकी तेजस्विता पूर्ण आंखों की जाज्वल्यमान ज्योति मेरी तमःपूर्ण आँखों में पड़ते ही जिस प्रकार तपोनिष्ठ ऋषियों के आश्रम में आये हुए हिंसक जीव भी उनके तपःप्रभाव से प्रभावित हो अपनी सहज-हिंसावृत्ति से विरत हो जाते हैं उसी प्रकार आप-जैसे आदर्श मानवमुकुट के मिलन से मेरी पूर्व-चिन्तित लोभग्रस्ति नौ दो ग्यारह हो गयी और झट अपनी प्रकृत माँग-काव्यकी मध्यमा दे रहा है. पाठ्य पुस्तकें नहीं हैं आपके समक्ष मैंने प्रस्तुत की। आपने अपने सहज सौम्य भाव से कहा कि "पुस्तकें जहाँ मिलती हों वी० पी० से भेज देने को लिख द। वी० पी० मा जाने पर डाकिये को लिये यहाँ बाजाइयेगा-कोठी से रुपये मिल जायेंगे।" मैंने तत्क्षण जीवानन्द विद्यासागर कलकत्ते को पुस्तके वी० पी० से भेज देने को लिख दिया। पुस्तकें यथा समय आगयीं तथा कोठी से रुपये भी मिल गये ।
अस्तु, अब मेरा अध्ययन सुचारु रूप से चलने लगा। मेरे गुरुजी आरा-नागरीप्रचारिणी सभा के संस्थापक, मंत्री या यों कहिये उसके सर्वेसर्वा थे। हिन्दी के प्राय: सभी समाचारपत्र वहाँ पाया करते थे अतः मुझे भी हिन्दी की कुछ-कुछ गन्ध लग गयी थी। मेरे गुरुजी से बा० देवकुमारजी की बड़ी मधुर मैत्री थी। सभा के लिए आर्थिक साहाय्यकी आवश्यकता होने पर गुरुजी आपसे उसकी पूर्तिकी अधिक अपेक्षा करते थे। क्योंकि सार्वजनीन साहाय्यापेक्ष्य कार्यों में आपको औदार्यपूर्ण दानधारा बड़े प्रखर वेग से प्रवाहित होती रही थी। एक दिन गुरुजी ने मुझसे कहा कि “बाबू देवकुमारजी ने अपने अष्टवर्षीय बच्चे को हिन्दी पढ़ाने के लिए मुझसे एक छात्र देने को कहा है। तुम्हें हो वहां भेजने को मैंने सोचा है। एक पत्र में दिये देता हूँ - इसे लेकर तुम उनसे मिलो।"
उन दिनों दुर्दान्त दमे की व्याधि से ग्रस्त होने के कारण श्राप कोठी छोड़कर सपरिवार अपनी मैनेजरी कोठी में ही रहा करते थे। मैंने वहीं जाकर गुरुजी का दिया हुमा परिचयपत्र प्रापको दे दिया। पत्र पढ़ और मेरी ओर देखकर आपने कहा कि "परीक्षा पास कर ली।" मैंने संकुचित होकर कहा, नहीं श्रीमन् ! क्यों ?