SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [भाग १ वार्षिक अधिवेशन में हन्होंने शिक्षा सम्बन्धी जो प्रस्ताव उपस्थित किये वे इनके लक्ष्य पर प्रकाश डालते हैं। (१) पाठशालाओं को संभाल के लिये एक जुदा मन्त्री होना चाहिये। (२) परीक्षालय का काम 'बालबोधिनी परीक्षा' से 'पंडित परीक्षा तक मय अंग्रेजी के ठीक किया जाय। (४) महाविद्यालय को सच्चा जैन कालेज बनाने के लिए कम से कम.....'मासिक अामदनी .......... का प्रबन्ध किया जाय'.........."महाविद्यालय में एक बहुत योग्य अंग्रेजी पढ़ बी० ए० जैनी को सुपरिन्टेन्डेन्ट नियत किया जाय जो कि विद्यार्थियों की शारीरिक व मानसिक और विज्ञानीय उन्नति की ओर सदा ध्यान रखें । इसी ध्येय की पूर्ति के लिये इन्होंने १२ जन सन् १९०५ को काशी में स्यावाद पाठशाला की स्थापना की थी जो बाद में एक महाविद्यालय के रूप में परिणत होकर आज भी स्याद्वाद दर्शन की शिक्षा से जैन-नवयुवकों को अपनी संस्कृति की ओर आकर्षित कर रही है। जैन बालकों को धार्मिक शिक्षा देने के लिए श्रारा में भी इन्होंने एक जैन-पाठशाला की स्थापना की थी जो समाज से उचित सहयोग न पाने के कारण उनके जीवन-पर्यन्त ही सुचारुरूर में काम कर सकी। इन्होंने जैन धर्म की परीक्षाओं के पाठ्यक्रम-निर्धारण और उनके संचालन में सहयोग देकर परीक्षार्थियों का उत्साह भी बढ़ाया। ___ लुप्त होती हुई जैन-संस्कृित के पुनर्विकास का प्रयत्न तो इनके जीवन का सर्वप्रधान ध्येय बना रहा । भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा के पाक्षिक मुखपत्र जैन गजट को संपादकीय टिप्पणियाँ इनके सतत् जागरूक विचारों से सुषुप्त जैन-समाज को झकझोरती रहीं। श्रारा में एक जैन धर्म प्रचारिणी सभा की स्थापना कर नियम पूर्वक प्रत्येक सप्ताह उपदेशपूर्ण व्याख्यानों की प्रायोजना द्वारा ये समाज में धर्म-भावना का संचार करते रहे। इनके जीवन का सबसे महस्वपूर्ण कार्य जिसने उन्हें सदा के लिए अमर ही नहीं बना दिया, जैन-संस्कृति के पुनरुदार में आशातीत नवचेतना उत्पन्न कर दी; इनका दक्षिण के मन्दिरों में भ्रमण कर प्राचीन शास्त्रप्रन्थों का चयन था । सन् १६०७ में इन्होंने यह पुण्य-कार्य प्रारंभ किया था । इनके साथ चुने हुए उपदेशक, भजनीक और पंडित भी थे। दक्षिण में छिपे हुए उस विशाल रत्नभण्डार को प्रकाश में लाने का श्रेय एकमात्र इन्हीको है। अनेक ग्रन्थों की मूल प्रतियों तथा अन्य की प्रतिलिपियाँ संग्रह कर इन्होंने पारा में एक विशाल शास्त्रागार की स्थापना की। "जैनसिद्धान्त-भवन' आज उन अमूल्य रत्नों को सबके लिए सुलभ बना रहा है जो हमारी संस्कृति के प्रकाशपुंज है। इन्होंने सभी स्थानों पर वहाँ के निवासियों को पुस्तकालय स्थापित करने का परामर्श दिया और इस कार्य की उपयोगिता पर ध्यान दिलाया। दक्षिण के मन्दिरों में हिन्दू
SR No.010080
Book TitleBabu Devkumar Smruti Ank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1951
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size47 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy