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________________ किरण] दक्षिण भारत में जैनधर्म का प्रवेश और विस्तार गंगवंश के समान इस वंश के राजा भी विट्टिमदेव तक जैन धर्मानुयायी रहे और जैनधर्म के प्रसार के लिये निरन्तर उद्योग करते रहे । जब रामानुजाचार्य के प्रभाव में आकर विट्टिमदेव वैष्णव हो गया, तो उसने अपना नाम विष्णुवर्द्धन रखा। इसकी पहली धर्मपत्नी शान्तलदेवी कट्टर जैनी थी। उसी के प्रभाव के कारण इस राजा ने जैनधर्म के अभ्युदय के लिये अनेक कार्य किये। विष्णुवर्द्धन का मंत्री गंगराज तो जैनधर्म का स्तम्भ था। श्रवणबेल्गोल के शिलालेखों में कई शिलालेख उनकी दानवीरता और धार्मिकता की दुहाई देते हैं। विष्णुवर्द्धन के उत्तराधिकारी नरसिंह प्रथम के मंत्री हुल्लास ने भी इस धर्म को दक्षिण में फैलाने का प्रयत्न किया। वस्तुतः मैसूर प्रान्त में इन दोनों मंत्रियों ने तथा चामुण्डराय ने जैनधर्म के प्रसार के लिये अनेक कार्य किये हैं। __होयसल के पश्नात बड़े राजवंशों में राष्ट्रकूट का नाम आता है, इस वंश के प्रतापी राजाओं के आश्रय में जैनधर्म का अच्छा अभ्युदय हुआ। मान्यवेट इनकी राजधानी थी, हम वंश में अनेक राजा नवमीनुयायों हुए हैं और सभी ने अपने अपने शासन काल में जैनधर्म की भावना की है। अमोघवर्ष प्रथम का नाम दि० जैनधर्म की उन्नति करने वालों में बड़े गौरव के साथ लिया जाता है। यह राजा दि० जैनधर्म का बड़ा भारी श्रद्धाल था. इसने अन्तिम अवस्था में रान-पाट लोड़कर जिन दीक्षा अपने गुरु जिनसेनाचार्य से ले ली थीं। अमोघवर्ष ने जिनसेनाचार्य के शिष्य गुगण मद्राचार्य को भी प्रश्रय दिया था। सम्राट अमोघव ने अपने उत्तराधिकारी कृष्णाराज द्वितीय गुगाभद्राचार्य को गुरु के लिये नियुक्त किया था। श्रवणबेलगोल की पाश्वनाथचसति शिलालेख से प्रकट है कि सम्राट् कृष्णराज की राजसभा में जैन गुरुओं का आगमन होता था तथा वह उनका यथोचित सत्कार करता थे। इस वंश में उत्पन्न हा चारों इन्द्र राजाओं ने जैनधर्म को धारण किया था तथा उसके प्रचार और प्रसार के लिये अनेक यत्न भी किये थे। यद्यपि अन्तिम राजा इन्द्र को राज्य की व्यवस्था करने में पूर्ण सफलता नहीं मिली थी, जिससे उसने जिनदीक्षा ग्रहण करली थी। कलचरि वंश-के नरेशों ने तामिल देश पर चढ़ाई की थी और वहाँ के राजाओं को परास्त करके अपना शासन स्थापित किया था। ये राजा जैनधर्म के अनुयायी थे, इनके पहुँचने से तामिल देश में जैनधर्म का प्रसार हुआ था। इस वंश के राजाओं का राष्ट्रकूट नरेशों से घनिष्ठ सम्बन्ध था, इनमें परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध भी हुए थे। इन प्रधान राजवंशों के अतिरिक्त नोलम्ब, सान्तार, चांगल्व, व्योङ्गल्व, पुन्नाट, सेनवार सालुव, महाबलि, एलिनका रट्ट, शिलाहार, चेल्लकेतन, पश्चिमी चालुक्य प्रभृति राजवंशों के अनेक राजा जैनधर्मानुयायी थे। इन वंशों के जो राजा जैनधर्म का पालन नहीं भी
SR No.010080
Book TitleBabu Devkumar Smruti Ank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1951
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size47 MB
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