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________________ किरण] दक्षिण भारत में जैनधर्म का प्रवेश और विस्तार व्याल पाण्ड्य देश गया था और पाण्ड्य राजकुमारी को विवाह करने आया था। भगवान् पाश्वनाथ क समय में करकण्ड नामका एक राजा हुआ है। उसने अपने राज्य का खूब विस्तार कर एक दिन मंत्री से पूछा, हे मन्त्री ! क्या कोई ऐसा गजा है जो मुझे मस्तक न नमाता हो ? मंत्री ने उत्तर दिया-उत्तर के तो सभी राजा आएकी आधीनता स्वीकार कर चुके हैं, पर द्राविड़ देश के चेर, चोल और पाराड्य नरेश श्रापको नहीं मानते। राजा ने उनके पास दूत भेजा, पर उन राजाओं ने करकगडु क, अधीनता नहीं स्वीकार की और यह कहकर दून को वापस कर दिया कि हम जिनेन्द्र भगवान को छोड़ और किसी को सिर नहीं झुका सकत। राजा करराड्डु को द्रविड़ राजाओं के उत्तर ने अधिक उत्तेजित कर दिया। इससे उसने प्रतिज्ञा की कि जब तक इन राजाओं को वश में न कर लँगा, शान्ति से राज्य नहीं करूँगा और इनको पददलित न करूं तो राज्य-पाट छोड़ दूंगा। करकण्डु ने सेना सजाकर युद्ध के लिये प्रस्थान कर दिया और रास्ते में तेरापुर नगर में पहुँचा, यहाँ राजा शिवने उसे भेंट चढ़ाई तथा राजा शिव के परामर्श से पास की पहाड़ी की गुफा में भगवान् पाश्वनाथ के दशन किये। उस पहाड़ी पर चमत्कार की एक बात यह थी, एक हाथी प्रति देन उस पहाड़ी पर स्थित एक वामी की पूजा करता था। राजा करगडु ने उसकी पूजा को देख कर अनुमान लगाया कि निश्चित इस वामी के नीचे कोई देवमूर्ति है, अन्यथा यह पशु पूजा नहीं करता, अतः उस वामी को खुदवाया। खुदाई में नीचे भगवान् पाश्वनाथ की एक मूत्ति निकला जिसे वह बड़ी भक्ति और श्रद्धा के साथ गुफा में ले आया। इसके पश्चात् बह राना इधर-उधर नमन करता हुआ दक्षिण पहुँचा तथा चेर, चोल और पागड्य नरेशों की सम्मिलित सेनाओं का सामना किया तथा अपने युद्ध कौशल से उन्हें हराका अपना प्रण पूरा किया। जब करकगड राजा उन परात राजाओं के सिर के ऊपर पैर रखने लगा ता उनके मुकुटों में स्थित ! जन प्रतिमाओं के दर्शन उसे हुए; जिससे उसे भारी . पश्चात्ताप' हुआ। उन्हें उसने फिर राज्य देना चाहा, पर वे स्वाभिमानी द्रवड़ाधिपनि यह कर तपस्या को चले गये कि अब हमारे पुत्र पौत्रादे ही राज्य को चलायेंगे। जम्बू स्वामी चरित्र से भी अवगत होता है कि विद्यच्चर नामका चोर जम्बूकुमार के प्रभाव के कारण चोरी से विरक्त हो गया था और यह भ्रमगा करता हुआ समुद्र के निकट स्थित मलयाचल पर्वत पर पहुंचा। यहाँ से वह सिंहलद्वीप गया, लौटते समय वह केरल आया था । द्रविड़ देश को उसने जैन मन्दिरों और जैन श्रावकों से पूर्व देखा । अनन्तर यह कर्णाटक, काम्बोज, कांचीपुर, सह्यपर्वत, आभीर आदि देशों में भ्रमण करता हुआ . हा हा मई मूढई किं कियउ, जिण बिंबु विचरणे आहयउ ।
SR No.010080
Book TitleBabu Devkumar Smruti Ank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1951
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size47 MB
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