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[ भाग १८
कारण ढूढ़ने के लिए जनगणना की श्रावश्यकता पर जोर दिया था। आपने लिखा था कि सन् १६०१ को मदुमशुमारी में जैनियों की संख्या केवल १३६ लाख रह गई है जब कि १८६१ में १४ लाख थी । आप यह जानना चाहते थे कि इस कमी का कारण क्या है। कुछ लोग कहते थे कि अनेकानेक जैन प्लेग से मर गये, कुछ लोगों ने अन्य धर्म ग्रहण कर लिया, गरीबों की शादी ही नहीं होती इत्यादि । पर वास्तविक कारण जानने के लिए अपने यह सुझाव पेश किया कि प्रत्येक स्थान में समुचित ढंग से जनगणना हो, पूरी जानकारी गाँव के वृद्ध पुरुषों से पूछ कर लिखी जाय और उसकी रिपोर्ट जैन गजट के सम्पादक के पास भेजी जाय; तब ह्रास के कारण का पता लगाकर उसके निराकरण का उद्योग किया जायगा ।
अखिल भारतीय पैमाने पर इतने बड़े कार्य को अपने हाथ में लेना असाधारण पराक्रम का परिचायक है।
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भास्कर
चरितनायक के अमलेखों से जो उद्धरण ऊपर दिये गये हैं उनसे पाठकों को भलीभांति उनके व्यक्तित्व तथा मिशन के संबंध में पता चल गया होगा । अब उनके सम्पादकत्व में प्रकाशित सामग्रियों के संबंध में भी कुछ कह देना आवश्यक जान पड़ता है ।
'जैन गजट' की फाइलों को देखने से जान पड़ता है कि सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन पर अधिक से अधिक लेख, कविता तथा वार्त्तालाप रहा करते थे। जिस प्रकार रोग ग्रस्त शरीर स्वास्थ्य की प्राप्ति नहीं कर सकता उसी प्रकार कुटेव ग्रस्त समाज भी उत्कर्ष की ओर असर नहीं हो सकता । चरितनायक जैसे लोक हितैषी के लिए यह स्वाभाविक ही था कि सामाजिक सुधारों पर ध्यान देते । जुना, विषयानुराग, अभक्ष्य सेवन, पारस्परिक फूट, शराबखोरी, बेमेल विवाह, परदा प्रथा श्रादि दूषणों पर प्रत्येक श्रंक में पाण्डित्य-पूर्ण लेख भरे रहते थे जिनका उद्देश्य था लोगों को इन दूषणों से अलग कर सच्चरित्र बनाना ।
कुछ स्वास्थ्य विषयक भी लेख रहा करते थे, जिनमें जैन बालकों के गिरते हुए स्वास्थ्य पर चिन्ता प्रकट की जाती तथा कसरत आदि पर जोर दिया जाता था। जैन-जगत लक्ष्मी का अनुग्रह प्राप्त कर इह लौकिक सुख की सामग्री एकत्र करने की तल्लीनता में मोक्षको जब भूल जाता तब जैन गजट के अनेकानेक लेख उसे परलोक की याद दिलाते थे । वेश्यागमन की निन्दा में इतनी सुन्दर सुन्दर रचनाएँ प्रकाशित होती थीं कि उन्हें पढ़कर कितनाही बड़ा वेश्यागामी अपनी भूल पर सोचना श्रवश्य श्रारम्भ कर देगा । मैं नीचे एक कवित्त उद्धृत करता हूँ जिसे पाठक स्वयं देखें
काया से काम जात, गाँठ हूं से दाम जात नारीहू से नेह जात, रूप जात रंग से । उत्तम सब कर्मजात कुल के सब धर्म जात गुरुजन से शर्म जात, आपनि मति भंग से ॥