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________________ भास्कर [भाग १ - जाता है आज भी वैसा ही मामला है। एक ओर तीर्थक्षेत्रों की पवित्रता और पूज्यता का भावभाकर चित्त को प्रफुल्लित करता है। दूसरी ओर उनकी धर्तमान दशा का कुपश्यन्ध दर्शन दे चित्त को खेदित करता है। खेदित ही नहीं किन्तु थोड़ी देर के लिए प्राकुल व्याकुल कर देता है।" इसी सम्पादकीय लेख में आपने आगे चल कर तीर्थक्षेत्रों के कुप्रबन्ध को दूर करने के संबन्ध में अपना रचनात्मक विचार स्पष्ट ढंग से प्रकट किया है। यद्यपि आप एक सम्प्रदाय विशेष का हितचिन्तन किया करते थे पर अन्य सम्प्रदायों के प्रति भी आप बड़े उदार थे। हिन्दुओं में वेद वाक्य सा प्रचलित 'न गच्छेत् जैन मन्दिरम्' की आपने अगस्त १६०४ के २० वें अंक में अालोचना लिखी थी जो निम्न प्रकार है:___ "भाइयों ! इस लोकोक्ति (द्वेषी जनो के वचन) ने हमारे भारतवर्ष का कितना अलाभ किया हैव हमारे इस पवित्र जैनधर्म को कैसा तुच्छ जगत के मानवों के सामने दिखला दिया है कि हिन्दूमत का बच्चे से बूढ़ा तक जैनमत को न मालूम कितनी घृणा की दृष्टि से देखता है कि मसजिदों में जाने में हर्ज नहीं, ताजियों के साथ मर्सिये पढ़ने में हर्ज नहीं, दिहली, कुश्रा, चाक पूजने में हर्ज नहीं पर जैनों के मन्दिरों में जाने से इतना हर्ज है कि कोई भूल से भी कदम नहीं रखता । चाहे हमारे जैनी भाई द्वेष न करके अपने हिन्दू भाइयों की सत्यनारायण की कथा में शामिल हों या देवी जी के भजनादि सुनने में कान लगाए बैठे रहें । पर हमारे हिन्दू भाई इसी उपरोक्त घड़न्त (न गच्छेत्"") को याद कर कभी भूल से भी जैनमत के सत्य उपदेश को नहीं सुनते।" इस अालोचना में कीचड़ उछालने की प्रवृत्ति नहीं है, न कहने का दंग ही टेढामेढ़ा या व्यंगात्मक है। जो वास्तविकता है उसे स्पष्ट शब्दों में सरलता के साथ रख दिया गया है। यह शैली पालोचक की शिष्टता और सौम्यता की परिचायक है। समालोचना के खरापन में भी विनय का पुट है। मैं शिष्ट समालोचना का एक दूसरा उदाहरण दूंगा जो अत्यन्त रोचक है। बैङ्कटेश्वर समाचार ने १५ जून, १९०६ के अंक में "साहित्य और विज्ञान" शीर्षक लेख में यह प्रकाशित किया कि यदि जैनियों के कथनानुसार रावण जैनी रहा हो और मेवनाद कुम्भकरण उनके धर्मवाले रहे हों तो नहीं समझ सकते कि जैनी भाई उसके पापी, सुरापायी, गौ-ब्राह्मण-सन्तापी और हिंसा-प्रिय होने के कलङ्क को किन प्रमाणों से दूर करेंगे। यह भी प्रसिद्ध है कि रावण और उसके वंशवाले शैव थे। शिव की असामान्य पूजा करके रावण ने वर प्राप्त किया था, क्या जैनी भाई यह भी कबूल करेंगे कि उस समय के जैनी ब्रह्मा, शिव श्रादि की पूजा भी किया करते थे।" ___ इस आक्षेप के उत्तर में सम्पादक जी ने अपनी एक सम्पादकीय टिप्पणी (जुलाई, १९०६ अंक २७) में लिखा कि हम सहयोगी से पूछते हैं कि उसने रावण श्रादि का सुरागयी, गो-ब्राह्मण
SR No.010080
Book TitleBabu Devkumar Smruti Ank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1951
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size47 MB
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