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________________ १२६ [ भाग १७ 1 अर्थात्- कन्नौज में श्रावकों का एक समुदाय था, जो अधिकांश अपना समय जिनेन्द्र पूजा, सैद्धान्तिक चर्चा आदि धार्मिक कार्यों में व्यतीत करता था । उस समुदाय में हुल्लासराय नामक श्रावक का भी नाम था । हुल्लासराय प्रायः अपना सारा समय देव, शास्त्र, गुरु के पूजा-पाठ में तथा तत्व-चर्चा में लगाया करते थे ये इत्र कुवंशी थे । इनकी जाति 'पल्लीवाल' और गोत्र 'शिव' था। इनके दो पुत्र थे, जिनमें जेष्ट पुत्र कनौजीलाल और कनिष्ठ गोविन्दराम थे। शुभ कर्मोदय से कनौजी लाल को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई, जिसका नाम मनरंगलाल रक्खा गया । कनौजीलाल को अन्य पुत्ररत्रों की भी प्राप्ति हुई, किन्तु सब में जेष्ठ मनरंगलात थे । मनरंगलाल के सुयोग्य मित्र गोपालदास थे / इन दोनों में मैत्रीभाव अत्यन्त घनिष्ट था । गोपालदास जिनेन्द्रदेव, शास्त्र और गुरु में अत्यन्त श्रद्धा रखते थे शास्त्र प्रेमी थे । छल-कपट और क्रोध के लिये इनके अन्दर स्थान नहीं था। इनके पिता का नाम खूत्यालचन्द्र था । गोपालदास शास्त्रों का संग्रह करने के लिये हमेशा कटिबद्ध रहते थे । इन्हीं के अनुरोध से तथा इनके वचनों को अमृत समान अत्यन्त प्रिय समझ कर मनरंगलाल ने नेमिनाथ की चन्द्रिका नाम की पुस्तक की रचना जेठ सुदी ११ गुरुवार सं० १०८०, नचत्र स्त्राति, सूर्य उत्तरायन में पूरी की। मास जेष्ठ शशि रक्ष की एकादश विचार । नवत स्वाति गुरुवार दिन, उत्तरायन रविसार ||१|| एक सहस अरु बाट सतक, वय असीति श्रर । याही संवत्मी की पूरन छह गुण गौर |||| 1 पुण्यात कथाकोप की प्रशस्ति जैन इतिहास के निर्माण में ग्रन्थ-प्रशस्तियों का बड़ा महत्व है। अधिकांश प्रन्थों में रचयिताओं ने अपने गए गच्छ, गुरु, परम्परा एवं अपने जीवन का उल्लेख किया है। कई प्रन्थों की अन्तिम प्रशस्ति में अनेक इतिहासोपयोगी बातें उल्लिखित हैं । दिगम्बर साहित्य की प्रन्थ- प्रशस्तियों का अभी सम्पूर्ण संकलन नहीं हो सका है । यद्यपि जैन सिद्धान्त भवन आरा ने प्रशस्ति-संग्रह प्रथम भाग तथा अभी हाल में दि० जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी से भी प्रशस्ति-संग्रह प्रकाशित है 1 हुआ पुण्यात्र कथाकोप को प्रशस्ति में रचयिता ने स्वयं पद्यबद्ध इस अधूरे मन्थ को प्राप्त तथा पूर्ण करने के कारणों का उल्लेख किया है। इस प्रन्थ में पूजादिक छः अधिकार हैं । इन अधिकारों के अन्तर्गत ५६ कथाएँ हैं । जिस विषय का प्रतिपादन है, उसी अभिप्राय को ध्यान में श्रादिपुराण आदि में रखकर इस प्रन्ध का १ - भास्कर
SR No.010080
Book TitleBabu Devkumar Smruti Ank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1951
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size47 MB
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