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________________ [ भाग १७ एक बार चाणक्य की पत्नी अपने भाई के बड़ी धूमधाम से होने वाले विशहोत्सव में सम्मिलित होने के लिये अपने मायके ( माइघर) गई। उनकी तीन बहिनें और उनके धनिक पति भी अपने सर्वोत्तम बहुमूल्य वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर उत्सव में सम्मिलित होने के लिये आये थे । इसके विपरीत चाणक्य की निरामरगा पत्नी ने वहाँ अपनी जी शी सादी वेषभूषा में किन्तु एक विवाहिता के सर्व श्रावश्यक सौभाग्य चिन्हों से युक्त प्रवेश किया। उसका वेष देखकर उसकी बहिनें और एकत्रित अतिथि समूह उस पर उपहास सूचक घृणा मिश्रित हँसी हँस उठे' । वहाँ उस बेचारी का सारा समय एकाकी ही बीता, किसी ने तनिक भी उसकी सुध न लो, सबने उपेक्षा ही की। वह दुःखिन हृदय से रोती हुई पति गृह में वापस आई। चाणक्य को उससे जब वहाँ की सब बातें विस्तार पूर्वक मालूम हुई तो वह समझ गया कि उसकी पत्नी के अपमान का कारण उनको निर्धनता (निध्वगतं ) थी, अब उसने तत्काल प्रतिज्ञा की कि चाहे जैसे बने वह विपुन धन ऐश्वर्य प्राप्त करके दम लेगा' । भास्कर उस समय महाराज नन्द' कार्तिकी पूर्णिमा के दिन ब्राह्मणादिकों को विपुन दान वितरण किया करता था | चाणक्य तुरन्त पाटलिपुत्र के लिये रवाना हुआ और उक्त तिथि के प्रातःकाल में वहाँ पहुँच गया। उसने राजमहल में प्रवेश किया और सभाभवन में सिरे पर जो पहला आसन दीख पड़ा उसी पर आसीन हो गया । यह आसन वास्तव में १- परिशिष्ट पर्व, ८, २०६-२०८ । २ - 'धरणम् उवज्जिगामि केवि उवाएग' - सु० बो० । ३ – सुखबध (२, १७) और श्राव० सू० वृत्ति ( पृ० ६६३) के अनुसार वह पाटलिपुत्र के नन्दवंश का नवम् नन्दराय था । अनेक विद्वान उसका जैन होना भी स्वीकार करते हैं । ४ - कार्ति की प्राह्निका, नंदीश्वर पूजा और सिद्ध चक्र विधान का यह अंतिम दिन जैन परंपरा में दान के लिये विशेष उपयुक्त माना जाता है। चौद्ध ग्रंथ सत्य कासिनी ( पृ० १२० ) के अनुसार राज्य की ओर से यह दान वितरण किसी विशेष दिन न होकर, नित्यवति ही हुआ करता था । इसी ग्रंथ से यह भी विदित होता है कि प्रतिवर्ष एक करोड़ मुद्राओं से ऊपर दिये जाने वाले इस राजकीय दान के समुचित वितरण के लिये महाराज नन्द ( वनानंद) ने एक दान विभाग (दाणग्ग ) स्थापित किया था जिसका नियन्त्रण इसी कार्य के लिये नियोजित एक 'संघ' द्वारा होता था । उक्त संघ के सदस्य विशिष्ट विद्वान ब्राह्मण ही होते थे और उनमें भी जो सर्वाधिक विद्वान् समझा जाता था वह उसका अध्यक्ष (मंत्रब्राह्मण) नियुक्त किया जाता था । संघब्राह्मण का कर्त्तव्य दारणग्ग का संचालन और राजकीय दानशाला में दान के दैनिक वितरण की अध्यक्षता करना होता था । स्वयं महाराज भी जब तब इसी कार्य के लिये वहाँ उपस्थित होते थे । ऐसा प्रतीत होता है कि संघब्राह्मण के पद की एक शर्त यह थी कि यदि वह किसी अन्य महत्तर विद्वान द्वारा शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया जायगा तो उसे अपने पद का त्याग कर देना होगा ।
SR No.010080
Book TitleBabu Devkumar Smruti Ank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1951
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size47 MB
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