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भास्कर
[भाग १०
जैन गजट के ६ - ७ वर्ष तक संपादक रहकर महान सेवा की है। आप कुरीतियों को हटाने, सुरीतियों का प्रचार करने, बालक-बालिकाओं को धार्मिक शिक्षा से श्रोतप्रोत करने, स्त्री समाज में शिक्षा का प्रचार करने, लोगों में सदाचार की भावना जागृत करने और जैन समाज में उपदेशक तथा संपादक तैयार करने के लिये विद्यालयों में इनकी पढ़ाई की व्यवस्था का प्रचार कराने के लिये उद्यत रहते थे। इन शिक्षाओं की आज भी उतनी ही आवश्यकता है। स्त्री शिक्षा के तो आप विशेष हामी थे।
आपने एक बार अपने वक्तव्य में लिखा था कि 'समाज की उन्नति तथा महत्व की कुंजी 'घर' है या यों कहिये कि समाज को उन्नति तथा महत्व का मूल स्त्रियां ही हैं।" इससे इन्हें शिक्षित करना यानी अपनी उन्नति करना है।"
आपमें धर्म की भावना पूर्णरूपेण विद्यमान थी। आपने सन् १६०६ में संपादकीय टिप्पणी में लिखा था कि हम ऐसे प्रमादी हैं कि जबतक हमारे शरीर ठीक हैं तबतक धर्म धारण नहीं करते हैं और मरने के समय धर्म ग्रहण करना चाहते हैं, परन्तु बन नहीं पड़ता क्योंकि अभ्यास तो अशुभ कर्मों के करने का है फिर अन्त समय क्या ध्यान टिके।
आप निर्भीकता से लोगों में धार्मिक भावना जागृत करने के लिये सदैव कुछ न कुछ लिखा ही करते थे। श्राप सन् १८६६ से महासभा के सभासद् रहे। आपने जन गजट की गिरती हुई हालत को संभाला और महासभा को इसके बोझ से मुक्तकर दिया था। आपने जिनवाणी के उद्धार के वास्ते एक जैन-लाइब्रेरी खोलने का प्रस्ताव किया और २००० मुद्रा देने का वचन दिया था।
तीर्थरक्षा के कार्य में आप सदा अग्रसर रहते थे। श्री सम्मेद शिखर जी के संबंध में जब जब काम पड़ता, आप हमेशा हिस्सा लेते रहे। आप बड़े सीधे-सादे
और शांति प्रिय स्वभाव के थे। सबसे बड़ी खूबी की बात आपमें यह थी श्राप अंग्रेजी में एफ. ए. और उर्द के अच्छे जानकार थे, फिर भी गर्व प्रापको छू न पाया था
दुःख है कि ऐसे महान नररत्न का असमय में ही वियोग हो गया। यदि कुछ समय और आप इस विनश्वर देह में रहते तो समाज की और धर्म की कितनी सेवा आपके द्वारा होती, इसका वर्णन किया नहीं जा सकता। लेकिन दैव दुनिवार है। स्वर्गीय श्रद्धेय पूज्य अपने महान नेता के प्रति हम अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
परसादी लाल पाटनी महामंत्री, अ०भा० दि० जैन महासभा, दिक्षी