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लेकर और भी रोचक बना सकते हैं । यदि सप्ताह में एक बार ही इस विषय की क्लास ली जाए तो एक वर्ष में सुविधा से यह कोर्स पूरा हो जाएगा। आवश्यकता इस बात की भी है कि इस विषय पर विशेष पुरस्कार घोषित कर के बच्चों को इस का गंभीर अध्ययन करने के लिए प्रोत्साहित किया जाए ।
स्पष्ट है कि धार्मिक दृष्टिकोण से इस पुस्तक का आधार एकांगी है परन्तु यह कोई नियम नहीं है कि यदि एक बात सत्य है तो और कुछ सत्य हो ही नहीं सकता अथवा यदि कुछ बातें अच्छी हैं तो और कुछ अच्छा हो ही नहीं सकता । इस लिए, उद्गम चाहे जो हो, जो गुरण कल्याणकारी हों, वे सर्वग्राह्य होने ही चाहिएं। पाठकों से इस ओर उदारता की मैं सविनय प्रार्थना करता हूं । प्रसिद्ध साहित्यकार श्री मन्मथनाथ गुप्त ने भूमिका लिखने की कृपा की है, मैं उन का अनुग्रहीत हूं ।
दिल्ली - ५ मई, १९६४
— महेन्द्र सेन