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[ ६७ ] . भावार्थ-केवलज्ञानादि अनन्तगुणोंकी राशि आत्मासे जुदे जो मिथ्यात्व रागादि अन्दरके भाव तथा देहादि बाहिरके परभाव ऐसे जो शुद्धात्मासे विलक्षण परभाव हैं, उनको छोड़कर केवलज्ञानादि अनन्तचतुष्टयरूप कार्यसमयसारका साधक जो अभेदरत्नत्रयरूप कारणसमयसार है, उस रूप परिणत हुए अपने शुद्धात्म स्वभावको चिन्तवन कर और उसीको उपादेय समझ ।।७४।।
अथ निश्चयेनाष्टकर्मसर्वदोपरहितं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रसहितमात्मानं जानीहीति कथयति
अट्टहं कम्महं बाहिरउ सयलहं दोसहं चत्तु । दसण-णाण-चरित्तमउ अप्पा भावि णिस्त्तु ॥७५।।
अष्टभ्यः कर्मभ्यः बाह्य सकलैः दोषैः त्यक्तम् ।।
दर्शनज्ञानचारित्रमयं आत्मानं भावय निश्चिंतम् ।।७।।
आगे निश्चयनयकर आठ कर्म और सब दोषोंसे रहित सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमयी आत्माको तू जान, ऐसा कहते हैं--(अष्टभ्यः कर्मभ्यः) शुद्धनिश्चयनयकर ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंसे (बाह्य) रहित (सकलैः दोषः) मिथ्यात्व रागादि सव विकारोंसे (त्यक्त) रहित (दर्शनज्ञानचारित्रमयं) शुद्धोपयोगके साथ रहनेवाले अपने सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप (आत्मानं) आत्माको (निश्चितं) निश्चयकर (भावय) चिन्तवन कर।
भावार्थ-देखे सुने अनुभवे भोगोंकी अभिलाषारूप सब विभाव-परिणामोंको छोड़कर निजस्वरूपका ध्यान कर । यहां उपादेयरूप अतीन्द्रियसुखसे तन्मयी और सब भावकर्म, द्रव्यकर्म नोकर्मसे जुदा जो शुद्धात्मा है, वही अभेद रत्नत्रयको धारण करने वाले निकट भव्योंको उपादेय है, ऐसा तात्पर्य हुआ ।।७।।
त्रिविधात्मप्रतिपादकप्रथममहाधिकारमध्ये पृथक् पृथक् स्वतन्त्रं भेदभावनास्थलसूत्रनवकं गतम् । तदनन्तरं निश्चयसम्यग्दृष्टिमुख्यत्वेन स्वतन्त्रसूत्रमेकं कथयति
अप्पिं अप्पु मुणंतु जिउ सम्मादिद्वि हवेइ । सम्माइट्ठिउ जीवडउ लहु कम्मइ मुच्चेइ ।।७६॥
आत्मना आत्मानं जानन् जोवः सम्यग्दृष्टि: भवति । सम्यग्दृष्टि: जीवः लघु कर्मणा मुच्यते ॥७६।।