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________________ [ ६५ ] - देहस्य' दृष्ट्वा जरामरण मा भयं जीव कार्षीः यः अजरामरः ब्रह्मा परः तं आत्मानं मन्यस्य ॥७१॥ ope आगे ऐसा कहते हैं कि हे जीव, तू जरा मरण देहके जानकर डर मत 1 ( जरामरणं ) बुढ़ापा मरनेको (यः) जो : ( अजरामरः ) अजर उसको तू ( श्रात्मानं ) आत्मा कर - (जीव ) है आत्माराम, तू ( देहस्य ) देहके ( दृष्ट्वा ) देखकर ( भयं ) डर ( मा कार्षीः) मतकर अमर ( परः ब्रह्मा ) परब्रह्म शुद्ध स्वभाव हैं, ( तं ) ( मन्यस्व ) जान | 6 भावार्थ — यद्यपि व्यवहार नयसे जीवके जरा मरण हैं, तो भी शुद्ध निश्चय - नयकर जीवके नहीं हैं, देहकें हैं, ऐसा जानकर भय मत कर, तू अपने चित्तमें ऐसा समझ, कि'जो कोई जरा मरण रहित 'अखण्ड' परब्रह्म है, वैसा ही मेरा स्वरूप है, शुद्धात्मा सबसे उत्कृष्ट है, ऐसा तू अपना स्वभाव जान | पांच इन्द्रियोंके विषयको और समस्त विकल्पजालोंको छोड़कर परमसमाधिमें स्थिर होकर निज आत्मका ही ध्यानकर, यह तात्पर्य हुआ ॥ ७१ ॥ ~~~~ अथ देहे fernist भिद्यमानेऽपि शुद्धात्मानं भावयेत्यभिप्रायं मनसि धूत्वा सूत्रं प्रतिपादयति छिज्जउ भिज्जउ जाउ खउ जोइय एहु सरीरु । अप्पा भावहि णिम्मलउ जिं पावहि भवन्तीरु ॥७२॥ छिद्यतां भिद्यतां यातुक्षयं योगिन् इदं शरीरम् | 1. आत्मानं भावय निर्मलं येन प्राप्नोषि भवतीरम् ॥७२॥ आगे जो देह छिद जावे, भिद जावे, क्षय हो जावे, तो भी तू भय मत कर, केवल शुद्ध आत्माका ध्यानकर, ऐसा अभिप्राय मनमें रखकर सूत्र कहते हैं - ( योगिन् ) हे योगी, ( इदं शरीरं ) यह शरीर (छिद्यतां ) छिद जावे, दो टुकड़े हो जावे, (भिद्यतां ) अथवा भिद जावे; छेदसहित हो जावे, ( क्षयं यातु) नाशको प्राप्त होवे, तो भी तू भय मत कर, मनमें खेद मत ला, ( निर्मलं आत्मानं ) अपने निर्मल आत्माका ही ( भावय ) ध्यानकर, अर्थात् वीतराग चिदानन्द शुद्धस्वभाव तथा भावकर्म द्रव्यकर्म नोकर्म रहित अपने आत्माका चिन्तवन कर, (येन ) जिस परमात्मा के व्यावसे तू ( भवतीरं ) भवसागरका पार ( प्राप्नोषि ) पायगा । -
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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