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[ ५७ ] इसप्रकार आठ गुण आठ कर्मोसे ढक गये, इसलिये यह जीव संसारमें भ्रमा। जब कर्मका आवरण मिट जाता है, तब सिद्धपदमें ये आठगुण प्रकट होते हैं । यह संक्षेपसे आठ गुणोंका कथन किया। विशेषतासे अमूर्तत्व निर्नामगोत्रादिक अनन्तगुण यथासम्भव शास्त्र-प्रमाणसे जानने । तात्पर्य यह है, कि सम्यक्त्वादि निज शुद्ध गुणस्वरूप जो शुद्धात्मा है, वही उपादेय है ।।६१॥ .
अथ विषयकषायासक्तानां जीवानां ये कर्मपरमाणवः संबद्धा भवन्ति तत्कर्मेति कथयति--
विसय-कसायहिं रंगियहँ ते अणुया लग्गंति । जीव-पएसहँ मोहियहँ ते जिण कम्म भणंति ॥६२॥ विषयकषायः रञ्जितानां ये अणवः लगन्ति ।
जोवप्रदेशेषु मोहितानां तान् जिनाः कर्म भणन्ति ॥६२॥
आगे विषय-कषायोंमें लीन जीवोंके जो कर्मपरमाणुओंके समूह बँधते हैं, वे ___ कर्म कहे जाते हैं, ऐसा कहते हैं-(विषयकषायैः) विषय-कषायोंसे (रंजितानां) रागो
(मोहितानां) मोही जीवोंके (जीवप्रदेशेषु) जीवके प्रदेशोंमें (ये अणवः) जो परमाणु (लगंति) लगते हैं, बन्धते हैं, (तान्) उन परमाणुओंके स्कन्धों (समूहों) को (जिनाः) जिनेन्द्रदेव (कर्म) कर्म (भणंति) कहते हैं ।
भावार्थ-शुद्ध आत्माकी अनुभूतिसे भिन्न जो विषयकषाय उनसे रंगे हुए आत्म-ज्ञानके अभावसे उपार्जन किये हुए मोहकर्मके उदयकर परिणत हुए, ऐसे रागी द्वेषी मोही संसारी जीवोंके कर्मवर्गणा योग्य जो पुद्गलस्कन्ध हैं, वे ज्ञानावरणादि आठ प्रकार कर्मरूप होकर परिणमते हैं। जैसे तेलसे शरीर चिकना होता है, और लि लगकर मैलरूप होके परिणमती है, वैसे ही रागी, द्वषी, मोही जीवोंके विषय-कषायदशामें पुद्गलवर्गणा कर्मरूप होके परिणमती है। जो कर्मोंका उपार्जन करते हैं, वही
जब वीतराग निर्विकल्पसमाधिके समय कर्मोका क्षय करते हैं, तब आराधने योग्य हैं, ___ यह तात्पर्य हुआ ||६२।।
___ अथापीन्द्रियचित्तसमस्तविभावचतुर्गतिसंतापाः शुद्धनिश्चयनयेन कर्मजनिता इत्यभिप्रायं मनसि धृत्वा सूत्रं कथयन्ति