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आगे जीवके विशेषपनेकर द्रव्य-गुणपर्याय कहते हैं - हे शिष्य, ( त्वं) तू ( श्रात्मानं ) आत्माको तो (द्रव्यं) द्रव्य ( बुध्यस्व ) जान, (पुनः) और (दर्शनं ज्ञानं ) दर्शन ज्ञानको (गुणी ) गुण जान, (चतुर्गतिभावान् तनुं ) चार गतियोंके भाव तथा शरीरको ( कर्मविनिर्मितान् ) कर्म जनित ( पर्यायान्) विभाव - पर्याय (जानीहि ) समझ |
भावार्थ- - इसका विशेष व्याख्यान करते हैं - शुद्ध निश्चयनयकर शुद्ध, बुद्ध, अखण्ड, स्वभाव, आत्माको तू द्रव्य जान, चेतनपनेके सामान्य स्वभावको दर्शन जान, और विशेषतासे जानपना उसको ज्ञान समझ । ये दर्शन ज्ञान आत्माके निज गुण हैं, उनमें से ज्ञानके आठ भेद हैं, उनमें केवलज्ञान तो पूर्ण है, अखण्ड है, शुद्ध है, तथा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान ये चार ज्ञान तो सम्यक्ज्ञान और कुमति, त अवधि तीन मिथ्या ज्ञान, ये केवल की अपेक्षा सातों ही खण्डित हैं, अखण्ड है, और सर्वथा शुद्ध नहीं हैं, अशुद्धता सहित हैं, इसलिये परमात्मामें एक केवलज्ञान ही है । पुद्गल में अमूर्तगुण नहीं पाये जाते, इस कारण पांचों की अपेक्षा साधारण, पुदुगलकी अपेक्षा असाधारण । प्रदेशत्वगुण कालके बिना पांच द्रव्यों में पाया जाता है, इसलिये पांचकी अपेक्षा यह प्रदेशगुण साधारण है, और कालमें न पाने से कालकी अपेक्षा असाधारण है 1
पुद्गल द्रव्य में मूर्तीकगुण असाधारण है, इसी में पाया जाता है, अन्य में नहीं और अस्तित्वादि गुण इसमें भी पाये जाते हैं, तथा अन्य में भी, इसलिये साधारणगुण हैं । चेतनपना पुद्गल में सर्वथा नहीं पाया जाता । पुद्गल - परमाणुको द्रव्य कहते हैं । स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णस्वरूप जो मूर्ति वह इस पुद्गलका विशेषगुण है । अन्य सब द्रव्यों में जो उनका स्वरूप है, वह द्रव्य है, और अस्तित्वादि गुरण, तथा स्वभाव परिणति पर्याय है । जीव और पुद्गल के बिना अन्य चार द्रव्यों में विभाव-गुण और विभाव- पर्याय नहीं है, तथा जीव पुद्गल में स्वभाव विभाव दोनों हैं । उनमें से सिद्धों में तो स्वभाव ही है, और संसारीमें विभावकी मुख्यता है । पुद्गल परमाणुमें स्वभाव ही है, और स्कन्ध विभाव ही है । इस तरह छहों द्रव्योंका संक्षेपसे व्याख्यान जानना ||५८ ||
अथानन्तसुखस्योपादेयभूतस्याभिन्नत्वात् शुद्धगुणपर्याय इति प्रतिपादन मुख्यत्वेन सूत्राष्टकं कथ्यते । तत्राष्टकमध्ये प्रथमचतुष्टयं कर्मशक्तिस्वरूप मुख्यत्वेन द्वितीयचतुष्टयं कर्मफलमुख्यत्वेनेति । तद्यथा ।