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[ ५१ ] तथा द्रव्य स्वभावसे सदा ध्रुव ही हैं । सिद्धोंके जन्म, जरा, मरण नहीं हैं, सदा अविनाशी हैं । सिद्धका स्वरूप सब उपाधियोंसे रहित है, वही उपादेय है, यह भावार्थ जानना ।।५६।।
अथ द्रव्यगुणपर्यायस्वरूपं प्रतिपादयतितं परियाणहि दव्वु तुहुँ जं गुण-पज्जय-जुत्तु । सह-भुव जाणहि ताहँ गुण कम-भुव पज्जउ वृत्तु ।।५७॥
तत् परिजानीहि द्रव्यं त्वं यत् गुणपर्याययुक्तम् । · सहभुव: जानीहि तेषां गुणाः क्रमभुवः पर्यायाः उक्ताः ।।५७।।
आगे द्रव्य, गुण, पर्यायका स्वरूप कहते हैं- (यत्) जो (गुणपर्याययुक्त) गुण और पर्यायोंकर सहित है, (तत्) उसको (त्वं) हे प्रभाकरभट्ट, तू (द्रव्यं) द्रव्य (परिजानीहि) जान, (सहभुवः) जो सदाकाल पाये जावें, नित्यरूप हों, वे तो (तेषां गुणाः ) उन द्रव्योंके गुण हैं, (क्रमभुवः) और जो द्रव्यकी अनेकरूप परिणति क्रमसे हों अर्थात् अनित्यपनेरूप समय समय उपजे, विनशे, नानास्वरूप हों वह (पर्यायाः) पर्याय . (उक्ताः) कही जाती हैं।
भावार्थ-जो द्रव्य होता है, वह गुणपर्यायकर सहित होता है। यही कथन तत्त्वार्थसूत्रमें कहा है “गुणपर्ययवद्रव्यं"। अब गुणपर्यायका स्वरूप कहते हैं- "सहभुवो गुणाः क्रमभुवः पर्यायाः" यह नयचक्क ग्रन्थका वचन है, अथवा "अन्वयिनो गुणा व्यतिरेकिण : पर्यायाः" इनका अर्थ ऐसा है, कि गुण तो सदा द्रव्यसे सहभावी हैं, द्रव्य में हमेशा एकरूप नित्यरूप पाये जाते हैं, और पर्याय नानारूप होती हैं, जो परिणति पहले समयमें थी, वह दूसरे समयमें नहीं होती, समय समयमें उत्पाद व्ययरूप होता है, इसलिये पर्याय क्रमवर्ती कहा जाता है। अब इसका विस्तार कहते हैं-जीव द्रव्यके ज्ञान आदि अर्थात् ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, आदि अनन्त गुण हैं, और पुद्गल-द्रव्यके स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, इत्यादि अनन्तगुण हैं, सो ये गुण तो द्रव्यमें सहभावी हैं, अन्वयी हैं, सदा नित्य हैं, कभी द्रव्यसे तन्मयपना नहीं छोड़ते । तथा पर्यायके दो भेद हैं-एक तो स्वभाव और दूसरी विभाव ।
जोवके सिद्धत्वादि स्वभाव-पर्याय हैं, और केवलज्ञानादि स्वभाव-गुण हैं । ये तो जीवमें ही पाये जाते हैं, अन्य द्रव्यमें नहीं पाये जाते । तथा अस्तित्व, वस्तुत्व,